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हरम में दैर में क्यूँ बे-हक़ीक़त चार-सू होती

बहज़ाद लखनवी

हरम में दैर में क्यूँ बे-हक़ीक़त चार-सू होती

बहज़ाद लखनवी

MORE BYबहज़ाद लखनवी

    हरम में दैर में क्यूँ बे-हक़ीक़त चार-सू होती

    जवाँ क़दमों पे झुक जाती जबीं तो आबरू होती

    अदब ना-आश्ना गिर्या ज़बान-ए-आरज़ू होती

    तो फिर बातें ही बातें गुफ़्तुगू ही गुफ़्तुगू होती

    अगर उस की ख़बर होती हमें हम हैं ज़माने में

    तो हम क्यूँ जुस्तुजू करते हमारी जुस्तुजू होती

    मोहब्बत मोहब्बत ये 'इनायत उन की है वर्ना

    दिल होता ग़म होता हम होते तू होती

    अगर हम पा-ए-साक़ी पर करते सज्दा-ए-मस्ती

    तो ये मस्ती हमारी हासिल-ए-जाम-ओ-सुबू होती

    अगर मैं काम ले लेता ज़रा ज़ोर-ए-तसव्वुर से

    तो वो सूरत वो जल्वा वो तजल्ली रू-ब-रू होती

    किसी की चश्म-ए-नाज़ुक गर इशारा ख़ुद फ़रमाती

    तो क्यूँ बहज़ाद मुज़्तर को मजाल आरज़ू होती

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