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मुझ को तिरी तलाश थी अपना मगर निशाँ मिला

बहज़ाद लखनवी

मुझ को तिरी तलाश थी अपना मगर निशाँ मिला

बहज़ाद लखनवी

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    मुझ को तिरी तलाश थी अपना मगर निशाँ मिला

    दश्त को जा रहा था में राह में गुलिस्ताँ मिला

    मस्त है दौर-ए-बंदगी झूम रहे ज़िंदगी

    इक तिरा दर ये क्या मिला का’बा-ए-दो-जहाँ मिला

    राह-ए-तलब में खो गया मैं तो ये हाल देख कर

    तू ही था मीर-ए-कारवाँ जो कोई कारवाँ मिला

    तुझ को भी पा लिया तो क्या दर्द भी जा लिया तो क्या

    कहते हैं सब जिसे सुकूँ मुझ को मगर कहाँ मिला

    माइल-ए-कुफ़्र हो के भी बच सकी जबीन-ए-शौक़

    फिर वही संग-ए-दर मिला फिर वही आस्ताँ मिला

    ख़ूब इंतिज़ाम-ए-शौक़ एक नहीं मक़ाम-ए-शौक़

    राज़ से बे-ख़बर मिला जो कोई राज़-दाँ मिला

    राहबरों से चल सका काम राह-ए-शौक़ में

    समझे थे जिस को राहज़न इक वही मेहरबाँ मिला

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