जो दूर से भी नज़र तुझ पे यार हम करते
जो दूर से भी नज़र तुझ पे यार हम करते
हज़ार जान-ए-गिरामी निसार हम करते
तिरे ख़याल से बातें हज़ार हम करते
ग़म-ए-फ़िराक़ को यूँ ख़ुश-गवार हम करते
हवा-ए-गुल में न परवा-ए-ख़ार हम करते
रह-ए-तलब में क़दम उस्तुवार हम करते
अभी कुछ और दम-ए-वापसीं ठहर जाता
कुछ और भी जो तेरा इंतिज़ार हम करते
वो बार बार सज़ा जुर्म-ए-शौक़ पर देते
मगर क़ुसूर वही बार बार हम करते
तिरे सितम की शिकायत ज़रूरत क्या थी हमें
कि शौक़ से गिला-ए-रोज़गार हम करते
ग़ुबार-ए-राह-ए-मोहब्बत अगर कहीं मिलता
तो उस को ताज-ए-सर-ए-इफ़्तिख़ार हम करते
दिलों की दश्त-ए-तमन्ना में थी फ़रावानी
वो कहते हैं कि कहाँ तक शिकार हम करते
वो वक़्त भी कहीं आता कि अ'र्ज़-ए-हाल के बा'द
तिरी जफ़ा पे तुझे शर्मसार हम करते
तेरा ख़याल न दिल से किसी तरह जाता
तुझे न भूलते कोशिश हज़ार हम करते
जो नाम आप का लेते सुकून-ए-ग़म के लिए
तो दिल को और भी कुछ बे-क़रार हम करते
समझ के छोड़ दिए बे-हिसाब आख़िर-कार
कि दिल के दाग़ कहाँ तक शुमार हम करते
अभी से तुझ पे फ़िदा हो गए तो ग़म क्या है
कि ये वही है जो पायान-ए-कार हम करते
बड़ा गुनाह किया तर्क-ए-मय से शक में पड़े
यक़ीन-ए-रहमत-ए-आमुर्ज़गार हम करते
अ'दू से क्यूँ हैं वो राज़ी न कुछ खुला 'हसरत'
कि फिर तरीक़ वही इख़्तियार हम करते
- पुस्तक : दीवान-ए-हस्रत हिस्सा दोउम (पृष्ठ 224)
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