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Sufinama

मक्तूब नंबर 1

ख़्वाजा ग़रीब नवाज़

मक्तूब नंबर 1

ख़्वाजा ग़रीब नवाज़

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

मेरे प्यारे, मेरे क़ल्बी दोस्त, मेरे भाई क़ुतुबुद्दीन देहलवी

अल्लाह तआ’ला आपको दोनों जहाँ की सआ’दत अ’ता फ़रमाए।

बंदा-ए-मिस्कीन मुई’नुद्दीन की तरफ़ से सलाम-ए-मस्नूना के बा’द वाज़ेह हो कि असरार-ए-इलाही के चंद निकात मैं यहाँ लिख रहा हूँ। ये अपने सच्चे मुरीदों और हक़ के तालिब-इ’ल्मों को सिखा देना ताकि वो ग़लती में पड़ें।

अ’ज़ीज़-ए-मन ! जिसने ख़ुदा को पहचान लिया वो कभी सवाल या ख़्वाहिश या आरज़ू नहीं करता। जिसने अभी तक नहीं पहचाना, वो उसकी बात को नहीं समझ सकता। दूसरा ये कि लालच को तर्क करो। जिसने लालच को तर्क किया उसने मक़्सूद हासिल कर लिया।

ऐसे शख़्स के बारे में ख़ुदा ने फ़रमाया है-

“व-नहन-नफ़्सा-अ’निल-हवा-फ़-इन्नल-जन्न-ता-हियल-मावा”

“वो शख़्स जिसने अपने नफ़्स को ख़्वाहिशात से रोक रखा है उसका ठिकाना जन्नत है”।

जिस दिल को ख़ुदा ने अपनी तरफ़ से फेर दिया है, उसे इंसानी ख़्वाहिशात के कफ़न में लपेट कर ज़मीन में दफ़्न कर दिया है।

एक रोज़ हज़रत ख़्वाजा बायज़ीद ने फ़रमाया कि एक रात मैंने ख़ुदा को ख़्वाब में देखा। मुझ से पूछा गया बायज़ीद क्या चाहते हो ?

मैने कहा “जो तू चाहता है”। ख़िताब हुआ कि अच्छा ! जिस तरह तू मेरा है उसी तरह मैं तेरा हूँ।

हर कि गर्दन निहद रज़ा-ए-ऊ रा

मरा हक़-ए-निगाहबाँ बाशद

इसलिए अगर तसव्वुफ़ की असलियत से वाक़िफ़ होना चाहते हो तो अपने पर आराम का दरवाज़ा बंद कर दो और फिर मोहब्बत के बल बैठ जाओ ! अगर तुम ने यह कर लिया तो समझो कि बस तसव्वुफ़ के आ’लिम हो गए। तालिब-ए-हक़ को ये बात दिल-ओ-जान से बजा लानी चाहिए। इंशा-अल्लाह ऐसा करने से वो बुराइयों से नजात पाएगा और दोनों जहान की मुरादें हासिल करेगा।

एक रोज़ मेरे शैख़ साहिब ने फ़रमाया- मुई’नुद्दीन ! क्या तुझे मा’लूम है कि साहिब-ए-हुज़ूर किसे कहते है? देखो साहिब-ए-हुज़ूर वो है जो हर वक़्त बन्दगी में हो और हर होने वाली बात, हर एक वाक़िए’ को अल्लाह तआ’ला की तरफ़ से ख़याल करे। तमाम इ’बातदों का मक़्सद यही है। जिसे यह हासिल है वो जहान का बादशाह है। बल्कि जहान का बादशाह उस का मुहताज है।

एक रोज़ मेरे शैख़ ने मुझे ख़िताब कर के फ़रमाया कि बा’ज़ दरवेश जो कहते हैं कि जब तालिब कमाल हासिल कर लेता है तो उसे घबराहट रहती है। यह ग़लत है। दूसरे वह जो कहते हैं कि इ’बादत करना भी उसके लिए ज़रूरी नहीं होता यह भी ग़लत है क्योंकि हज़रत सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम हमेशा बंदगी और इ’बादत में मशगूल रहे। बावजूद कमाल-ए-बंदगी के आख़िर में यह फ़रमाया करते थे- “मा अ’बद्ना-क हक़्क़ा इ’बादति-क” (यानी हमने तेरी ऐसी इ’बादत नहीं की जैसी हमें करनी चाहिए थी ! )

या’नी जैसी चाहिए वैसी तेरी इ’बादत नहीं कर सकते और निहायत आ’जिज़ी से फ़रमाया करते थे-

“अश्हदु-अल्ला-इलाहा-इल्लल्लाहु-व-अश्हदु अन-न -मोहम्मदन-अ’ब्दुहु-व-रसूलुहु”।

मैं इस बात की गवाही देता हूँ कि अल्लाह तआ’ला के सिवा… और कोई मा’बूद नहीं… और ये मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम उसका बंदा और भेजा हुआ है।

यक़ीन जानो कि जब आ’रिफ़ कमाल का दर्जा हासिल करता है तो उस वक़्त कमाल दर्जे की इ’बादत जिससे मुराद नमाज़ है, निहायत सच्चे दिल से अदा करता है। इस से ख़ुदा से नज़दीकी ज़्यादा हासिल होती है बल्कि अस्ल में यही नमाज़ है। जब कोई यह मा’लूम करके सच्चाई के काम लेता है तो उसे ऐसी प्यास महसूस होती है गोया उसने आग के कई प्याले पी रखे हैं। जूँ-जूँ वह ऐसे प्याले पिएगा प्यास बढती जाएगी इस हालत की कोई इन्तिहा नहीं, उस वक़्त उसका सुकून बे-सुकूनी और आराम बे-आरामी हो जाती है जब तक कि उसे ख़ुदा का दीदार हो जाये!

वस्सलाम

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