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मैं सदा से 'आशिक़-ए-ज़ार था कभी नूर का कभी नार का

महमूद आलम

मैं सदा से 'आशिक़-ए-ज़ार था कभी नूर का कभी नार का

महमूद आलम

MORE BYमहमूद आलम

    मैं सदा से 'आशिक़-ए-ज़ार था कभी नूर का कभी नार का

    वही सिलसिला है अभी तलक वही आस बोस-ओ-कनार का

    मैं ख़िज़ाँ-ज़दा तो अज़ल से हूँ मिरे बाल-ओ-पर भी झुलस गए

    तो जिस्म-ओ-जाँ में सकत रही तो वलवला है बहार का

    कभी नींद खुलती है रात में कभी भोर में ये सदा मिली

    उठो जाओ जानिब-ए-लाला रुख़ वो अभी भी प्यासा है प्यार का

    कभी वज्द में जो मैं गया सर-ए-बज़्म साक़ी ने ये कहा

    रहो हद में तुम रहो बा-अदब ये असर है तुम में ख़ुमार का

    ये धुआँ-धुआँ है जो चार-सू ज़रा ग़ौर से इसे देख तू

    ये भी 'अक्स आह-ओ-बुका का है ये असर है दिल के ग़ुबार का

    मिरी ज़िंदगी भी बसर हुई उसी गुलिस्ताँ के हिसार में

    मिरा रिश्ता इस से क़रीब है वही रिश्ता है गुल-ओ-ख़ार का

    सितम करो सहन करो उसी तर्ह मश्क़-ए-सुख़न करो

    कहो सारे अपने हरीफ़ों से नहीं डर है क़ैद-ओ-हिसार का

    ये निज़ाम-ओ-शम्स-ओ-क़मर है क्या मिरे रब की सारी करामातें

    पस-ए-पर्दा रब्ब-ए-जलील है वही रब है लैल-ओ-नहार का

    कभी साज़-ए-दिल को तो छेड़िए कभी नग़्मगी को सुनें ज़रा

    तो सुनेंगे नग़्मा-ए-जाँ-ब-लब ब-लब दिल शिकस्ता सितार का

    ये मक़ाम है वो मक़ाम-ए-शब सभी मस्त पी कर मय-ए-अलस्त

    ख़बर है गिर्द-ओ-नवाह की नहीं होश दिल की पुकार का

    मिरी ज़िंदगी में थी सादगी कोई शो'बा कोई पड़ाव हो

    हाँ अभी है वही वलवला वही जज़्बा अब भी निसार का

    मैं पला जहाँ मैं बढ़ा जहाँ जहाँ मेरी नश्व-ओ-नुमा हुई

    सभी याद आते हैं बरमला है क़र्ज़ क़ुर्ब-ओ-जवार का

    मैं यहाँ रहूँ या वहाँ रहूँ मिरी सोच अब भी वहीं की है

    मैं करूँ भी क्या कि उतार दूँ है ये बोझ सर पे उधार का

    कभी ग़म में ग़म के असर में भी कभी याद अपनों की गई

    कभी चिलचिलाती सी धूप में जैसे एक झोंका फुवार का

    स्रोत :
    • पुस्तक : Mata-e-Haque (पृष्ठ 38)

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