Font by Mehr Nastaliq Web

फिर चाहे जितनी क़ामत ले कर आ जाना

मुज़फ़्फ़र वारसी

फिर चाहे जितनी क़ामत ले कर आ जाना

मुज़फ़्फ़र वारसी

MORE BYमुज़फ़्फ़र वारसी

    फिर चाहे जितनी क़ामत ले कर जाना

    पहले अपनी ज़ात से तुम बाहर जाना

    तन्हा तय कर लूँगा सारे मुश्किल रस्ते

    शर्त ये है कि तुम दरवाज़े पर जाना

    मैं दीवार पे रख आऊँगा दीप जला कर

    साया बन कर तुम दरवाज़े पर जाना

    तुम ने हम को ठुकराया ये ज़र्फ़ तुम्हारा

    जब तुम को ठुकरा दें लोग इधर जाना

    बातों का भी ज़ख़्म बहुत गहरा होता है

    क़त्ल भी करना हो तो बे-ख़ंजर जाना

    तुम क्यूँ अपनी सत्ह पे हम को लाना चाहो

    मुश्किल है गहराई का ऊपर जाना

    जब थक जाए ज़ेहन ख़ुदाई करते करते

    बंदों से मिलने बंदः-परवर जाना

    हम ने ये तहज़ीब परिंदों से सीखी है

    सुब्ह को घर से जाना शाम को घर जाना

    रस्ता रस्ता एक अजाइब-गाह 'मुज़फ़्फ़र'

    हँसती आँखों से जाना शश्दर जाना

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY
    बोलिए