कहानी-12- फ़क़ीरी गुलिस्तान-ए-सा’दी
एक साधारण-सा व्यक्ति हिजाज़ के क़ाफ़िले के साथ पैदल चलता हुआ कूफ़ा शहर से निकला और हमारे साय हो लिया। मैंने देखा कि उसके पास कुछ नहीं था फिर भी अकड़कर चल रहा था।
वह कह रहा था, न तो मैं ऊँट पर सवार हूँ, न ऊँट की तरह लदा हुआ हूँ। न मैं र'इय्यत का मालिक हूँ, न बादशाह और न बादशाह का ग़ुलाम! जो है उसका ग़म नहीं, जो नहीं, उसकी फ़िक्र नहीं है। चैन से साँस लेता हूँ और उ'म्र काटता हूँ।
एक ऊँट सवार ने उससे कहा, ऐ फ़क़ीर! कहाँ जा रहा है। लौट जा, नहीं तो मुसीबतों से मर जाएगा।
यह सुनकर फ़क़ीर जंगल की तरफ़ चल दिया। जब हम लोग नख़्ल-ए-महमूद नामक स्थान के निकट पहुँचे तो वह धनवान ऊँट सवार मर चुका था।
वही फ़क़ीर अचानक उसके सिरहाने आकर बोला, मैं तो पैदल भी मुसीबत से नहीं मरा और तू इतने अच्छे ऊँट पर बैठे-बैठे मर गया।”
एक व्यक्ति तमाम रात एक बीमार के सिरहाने रोया। जब दिन, निकला, तो बीमार अच्छा हो चुका था, मगर रोने वाला मर गया था।
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