तिरी महफ़िल में फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कौन देखेगा
तिरी महफ़िल में फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कौन देखेगा
अज़ीज़ वारसी देहलवी
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तिरी महफ़िल में फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कौन देखेगा
फ़साना ही नहीं कोई तो उ’न्वाँ कौन देखेगा
यहाँ तो एक लैला के न जाने कितने मज्नूँ हैं
यहाँ अपना गरेबाँ अपना दामाँ कौन देखेगा
बहुत निकले हैं लेकिन फिर भी कुछ अरमान हैं दिल में
ब-जुज़ तेरे मिरा ये सोज़-ए-पिन्हाँ कौन देखेगा
अगर पर्दे की जुम्बिश से लरज़ता है तो फिर ऐ दिल
तजल्ली-ए-जमाल-ए-रू-ए-जानाँ कौन देखेगा
अगर हम से ख़फ़ा होना है तो हो जाइए हज़रत
हमारे बा’द फिर अंदाज़-ए-यज़्दाँ कौन देखेगा
मुझे पी कर बहकने में बहुत ही लुत्फ़ आता है
न तुम देखोगे तो फिर मुझ को फ़रहाँ कौन देखेगा
जिसे कहता है इक आ’लम 'अ’ज़ीज़'-ए-वारिस-ए-आ’लम
उसे आ’लम में हैरान-ओ-परेशाँ कौन देखेगा
- पुस्तक : कुल्लीयात-ए-अज़ीज़ (पृष्ठ 28)
- रचनाकार : अज़ीज़ वारसी
- प्रकाशन : मर्कज़ी पिंटरज़, चूड़ीवालान, दिल्ली (1993)
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