अयाज़ का अपने पोस्तीन के लिए हुज्रा ता'मीर करना और हासिदों की बद-गुमानी - दफ़्तर-ए-पंजुम
रोचक तथ्य
अनुवादः मिर्ज़ा निज़ाम शाह लबीब
अयाज़ ने जो बहुत अ’क़्लमंद था अपने पुराने पोस्तीन और चप्पलों को एक हुज्रे में लटका रखा था और रोज़ाना उस हुज्रे में तन्हा जाता और अपने आपसे कहता कि देख तेरी चप्पलें ये रखी हैं ख़बरदार तकब्बुर-ओ-नख़्वत मत करना। लोगों ने बादशाह से अ'र्ज़ की कि अयाज़ ने एक हुज्रा बनाया है उस में चांदी सोना जम्अ’ किया है और एक शराब का छोटा सा पीपा भी है वहाँ किसी को आने नहीं देता हमेशा दरवाज़ा बंद रखता है। बादशाह ने फ़रमाया उस ग़ुलाम पर हैरत है। भला हमसे क्या चीज़ और क्या बात पोशीदा रह सकती है।
बादशाह ने एक अमीर को हुक्म दिया कि आधी रात को ज़बरदस्ती दरवाज़ा खोल कर अंदर घुस जाओ। वहाँ जो कुछ पाओ लूट लो और वहाँ के पोस्तकंदा हालात अहल-ए-दरबार पर ज़ाहिर करो। इस के क्या मा’ना कि हमारे इतने कम और बे-हिसाब मेहरबानियों के बावजूद भी अपनी बद-फ़ितरती की वजह से सोना चांदी छुपा कर रखता है अगरचे बादशाह ख़ुद उस की पाक-बाज़ी का यक़ीन रखता था लेकिन अमीरों को ए’लानिया दिखाने के लिए तदबीर की और हुक्म दिया ऐ अमीरो! आधी रात को जाकर उस के हुज्रे का दरवाज़ा खोलो।
उस की सारी दौलत मैंने तुम्हें बख़्शी। बादशाह अमीरों से तो यह कह रहा था मगर उस का ज़मीर जाने बूझे के मुतअ’ल्लिक़ ऐसा हुक्म देने पर बे-ताब था कि मेरी ज़बान से और ऐसे अहकाम अयाज़ के मुतअ’ल्लिक़ निकलें । अगर मेरी ऐसी संग-दिली का हाल वो सुन लेगा तो उस का क्या हाल होगा। फिर कहता था कि उस के दीन-ओ-ईमान की क़सम इस वाक़िए के बा’द उस की इ’ज़्ज़त-ओ-तौक़ीर और बढ़ जाएगी। अगर मैं आज़माने को सौ तलवारें भी लगाऊं तो भी उस प्यारे की मोहब्बत कम ना होगी। अल-क़िस्सा वो सब अमीर हुज्रे के दरवाज़े पर दौलत और शराब लूटने की धुन में पहुंचे। चंद आदमियों ने बड़ी हाथ चालाकी और कान से दरवाज़े का क़ुफ़्ल खोल डाला क्योंकि उस पर बहुत पेचदार क़ुफ़्ल पड़ा हुआ था। अयाज़ ने ये क़ुफ़्ल बुख़्ल की राह से नहीं डाला था बल्कि चाहता था कि अपना भेद अ’वामुन्नास से पोशीदा रखे। हुज्रा खोल कर ये बद-गुमान हासिद एक दम ऐसे अंदर घुस पड़े जैसे कि छाछ की नाँद में मक्खी मच्छर सड़ कर बदबू देने लगते हैं क्योंकि वो छाछ के इ’श्क़ में बड़े ज़ोर शोर से गिरते हैं मगर ना छाछ खा सकते हैं ना बाहर निकलने का दम बाक़ी रहता है। उन्होंने हुज्रे के दाएँ बाएँ देखा-भाला। वहाँ सिवाए फटी चप्पल और पोस्तीन के क्या धरा था। फिर आपस में कहा कि इस जगह ज़रूर कुछ होना चाहिए। ये फटी हुई चप्पलें तो ज़रूर दिखावे को हैं। कहने लगे नोकदार मेख़ें तो ले आओ ज़मीन-दोज़ हौज़ों और बदरवों को भी खोल कर देख लें। चुनांचे हर तरफ़ खोद खोद कर भी देखा। कई कई गढ़े और ख़ंदक़ें खोद डालीं मगर आख़िर-कार अपनी हरकतों पर शर्मा शर्मा कर उन गढ़ों को भरते जाते थे। उस के बा’द उन्होंने अपनी अ’क़्ल के अंधेपन से दीवारों में बड़े बड़े बुग़ारे डाल देते। लेकिन यहाँ भी हर ईंट में लाहौल की गूंज थी। इस गिरोह की तमाम गुमराहियों और बेहूदगियों के गवाह दीवारों के बुग़ारे रह गए । ये तो मुम्किन था कि दीवार ज़बान-ए-हाल से नाला ना करे मगर अयाज़ की बे-गुनाही पर कोई मजाल-ए-इनकार ना थी। बहर-हाल अब ये फ़िक्र पड़ी कि बादशाह के सामने क्या उ’ज़्र करें कि अपनी जान बचे। आख़िर-कार मायूस हो कर अपने हाथों और होंटों को काट काट कर लहूलुहान करते हुए सरों पर औ’रतों की तरह दुहत्तटर मारते हुए वो लोग गर्द-ओ-ग़ुबार में अटे ज़र्द-रू शर्मिंदा शक्ल बनाए हुज़ूर-ए-शहरयार में हाज़िर हुए।
बादशाह के अ’र्ज़-बेगी ने छुटते ही पूछा कि बताओ क्या हाल है? तुम्हारी बग़लें ज़र-ओ-जवाहर की थैलियों से ख़ाली हैं। और अगर तुमने वो दौलत छुपा ली है तो ख़ैर मगर तुम्हारे चेहरों और गालों पर मसर्रत के ख़ून की झलक तक भी नहीं है वो सब अमीर पशेमानी का इज़हार करने लगे और सब के सब साये की तरह चांद के आगे सज्दे में गिर पड़े । इस कीने और हमा-हमी के दा’वों की शर्मिंदगी मिटाने को तेग़-ओ-कफ़न लेकर हाज़िर हुए। सब मारे शर्म के उंगलियाँ काट रहे थे और हर एक कह रहा था कि ऐ शाह-जहाँ अगर हमारा ख़ून भी बहाया जाए तो बिलकुल हलाल है। अगर बख़्श दिया जाये तो आपका इनआ’म-ओ-एहसान है। बादशाह ने इर्शाद किया कि नहीं मैं ना तुम को बख़्शूँगा ना सज़ा दूँगा। ये मुआ’मला अयाज़ के सुपुर्द है। ये तकलीफ़-ओ-मुसीबत अयाज़ के जिस्म और आबरू पर गुज़री है और ज़ख़्म उस नेक ख़सलत की रगों पर लगे हैं। लिहाज़ा ऐ अयाज़ अब तू उन मुज्रिमों पर हुक्म-ए-अ’दालत जारी कर क्योंकि हमको तेरे बदला लेने का सख़्त इंतिज़ार है। अयाज़ ने अ’र्ज़ की कि ऐ बादशाह हुक्म तो तुझी को हासिल है। जहाँ आफ़्ताब तुलूअ’ हो, वहाँ सितारे नाबूद हो जाते हैं। ज़ुहरा या उ’तारिद या शहाब-ए-साक़िब की क्या मजाल है कि आफ़्ताब के आगे अपना वजूद साबित करें। बादशाह ने इर्शाद फ़रमाया कि ऐ अयाज़ तुझे अपनी चप्पल और पोस्तीन से ये इश्क़ है। ये तेरी बुत-परस्ती नहीं तो क्या है। इन दो पुरानी चीज़ों को तू कब तक याद रखेगा। आख़िर ये तो बता कि तेरी चप्पल किस आसिफ़ की जल्वागाह है और क्या तेरी पोस्तीन यूसुफ़ की क़मीस है? अपनी चप्पल के इस भेद को बयान कर कि तुझे इस चप्पल के आगे इतनी सर अफ़्गंदगी क्यों है, ताकि पोस्तीन और चप्पल के अस्ल भेद को मा’लूम कर के हमारे ना-फ़रमान और फ़र्मांबरदार बंदे सर झुकाएँ।
अयाज़ ने अ’र्ज़ की मैं तो इतना ही जानता हूँ कि सब तेरी अ’ता है वर्ना मैं तो वही पोस्तीन और चप्पल हूँ। इसीलिए उनकी हिफ़ाज़त करता हूँ कि गोया वो मेरी अस्ली ज़ात की हिफ़ाज़त है।
- पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 170)
- प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)
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