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ग़ैर-आबाद मकान के दरवाज़े पर एक शख़्स का भैरव राग अलापना- दफ़्तर-ए-शशुम

रूमी

ग़ैर-आबाद मकान के दरवाज़े पर एक शख़्स का भैरव राग अलापना- दफ़्तर-ए-शशुम

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    रोचक तथ्य

    अनुवादः मिर्ज़ा निज़ाम शाह लबीब

    एक शख़्स किसी हवेली के दरवाज़े पर भैरव गा रहा था हालाँकि अभी आधी रात आई थी। उस से एक कहने वाले ने कहा कि भाई तू अ’जीब बे-सब्रा है। आधी रात को गला चीरे जाता है। ये राग सुब्ह होते गाईओ। दूसरे, ज़रा ये तो देख भाल ले कि इस घर में कोई है भी या नहीं, यहां तो सिवा भूत-प्रेत के और कोई नहीं,तू अपना वक़्त ना-हक़ ख़राब करता है। तेरा गाना समझने और मज़ा लेने को साहिब-ए-होश चाहिए सो यहां साहिब-ए-होश कहाँ है।

    उसने जवाब दिया कि ग़ुलाम से जवाब सुन लीजिए ताकि आपको मेरी हरकत पर हैरत ना रहे। अगरचे इस वक़्त आपकी हिस आधी रात महसूस कर रही है लेकिन मेरे नज़दीक ये वक़्त सुब्ह-ए-सादिक़ का है और सारी रात मेरी आँखों में दिन हो गई है और ये जो आपने फ़रमाया कि हवेली और जिलो-ख़ाने में कोई नहीं है तो तबल क्यों बजाता है?

    इस का जवाब ये है कि जो शख़्स आगाह है वो दोस्त के घर को दोस्त से आबाद रखता है। और बहुत से मकान हैं लेकिन अंजाम-बीं निगाहों को ख़ाली नज़र आते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 206)
    • प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)

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