एक बीमार का सूफ़ी-ओ-क़ाज़ी के चांटा लगाना- दफ़्तर-ए-शशुम
रोचक तथ्य
अनुवादः मिर्ज़ा निज़ाम शाह लबीब
एक शख़्स तबीब के पास गया और कहा कि ज़रा मेरी नब्ज़ देख दीजिए। तबीब ने नब्ज़ हाथ में ली और जान गया कि इस मरीज़ की सेहत की उम्मीद नहीं। उस से कहा कि जो तेरे जी में आए वो कर, ताकि जिस्म से ये बीमारी जाती रहे। इस मरज़ के लिए सब्र-ओ-परहेज़ को नुक़्सान समझ और जिस काम को तेरा दिल चाहे वो ज़रूर कर। बीमार ने कहा कि ख़ुदा तुझे अच्छा रखे। ऐ भाई अब तो मैं नहर के किनारे जाता हूँ।नहर के किनारे एक सूफ़ी बैठा हाथ मुँह धो रहा था ।
यकायक जो उस मरीज़ के जी में आया तो सूफ़ी की गुद्दी पर एक चाँटे का हाथ साफ़ किया। क्योंकि उसने सोचा कि चांटा लगाने की रग़बत है, अब इस रग़बत को पूरा ना करूँगा तो तबीब कह चुका है कि बीमारी बढ़ जाएगी।जैसे ही उसने तड़ाक़ से एक चांटा रसीद किया सूफ़ी तड़प कर खड़ा हो गया और इरादा किया कि दो तीन घूँसे कस कर लगाए और दाढ़ी नोंच कर उखाड़ डाले लेकिन नज़र भर के जो देखा तो वो बहुत मेख़ी और बीमार था। मरज़ुल-मौत ने उस का पहले ही काम तमाम कर दिया है। वो तो मेरे एक घूँसे में राँग की तरह पिघल जाएगा और लोग सारा इल्ज़ाम मुझ पर धरेंगे। ये सोच कर उस का दामन थाम लिया और खींचता हुआ क़ाज़ी के पास लाया कि उस बे-नसीब गधे को गधे पर बिठाया जाये या चाँटे के बदले उस को दुर्रे की सज़ा दी जाये। बहर-हाल जो आपकी राय हो वो कीजिए। क़ाज़ी ने कहा कि मारने का मक़ाम कौन सा है क्योंकि तेरा दा’वा अभी साबित नहीं? अहकाम-ए-शरा’ ज़िंदों–ओ-सरकशों के लिए हैं मरने वालों पर अहकाम-ए-शरा’ नाफ़िज़ नहीं हो सकते उसको गधे पर बिठाना भी मस्लिहत नहीं। भला सूखी लक्कड़ी को कौन गधे पर बिठाता है। उसके बैठने के लिए गधे की पीठ सज़ावार नहीं। उस की रुस्वाई को ताबूत सज़ावार है।
सूफ़ी ने कहा कि तो क्या आप जाइज़ समझते हैं कि वो मुझे चांटा भी लगाए और कोई सज़ा भी ना पाए? क्या ये जाइज़ है कि हर रास्ता चलता बाज़ारी आदमी सूफ़ियों को बे-वजह चांटा लगा दे? क़ाज़ी ने कहा अरे जा सूफ़ी का क्या गया, ऐसे क़रीब-उल-मौत बीमार से झगड़ा मत कर। ऐ सूफ़ी इस वक़्त तेरे पास क्या है। उसने जवाब दिया कि छः दिरम मेरे पास हैं। क़ाज़ी ने कहा तीन दिरम तू ख़र्च कर और बाक़ी तीन दिरम इसे दे दे। ये बे-हद कमज़ोर है। बीमार और मिस्कीन है। तीन दिरम इस को रोटी खाने के काम आएँगे।
ये सुनकर सूफ़ी बहुत बिगड़ा और क़ाज़ी से रद्द-ओ-क़दह होने लगी लेकिन उधर इस बीमार का बुरा हाल था।क़ाज़ी की गुद्दी पर जो उस की नज़र पड़ी तो देखा कि वो सूफ़ी की गुद्दी से भी ज़ियादा चिकनी और अच्छी थी ।चाँटे के लिए हाथ ताना और कान में बात कहने के तौर पर क़ाज़ी के पास आया और एक चांटा क़ाज़ी को भी रसीद कर दिया और कहा कि वो छः दिरम तुम दोनों ही बांट लो ताकि मैं बे ख़रख़शे और बे-वस्वसे चला जाऊं। इस हरकत पर क़ाज़ी मारे ग़ुस्से के बे-क़ाबू हो गया और चाहा कि उस के फ़ौरन दुर्रे लगवाए।
सूफ़ी ने कहा हाएं ऐ शरिअ’त-पनाह तुम्हारा हुक्म ऐ’न इन्साफ़ है। इस में कोई शक-ओ-शुबहा नहीं कर सकता जो बात तू अपने लिए नहीं पसंद करता वही बात अपने भाई के हक़ में कैसे तजवीज़ कर रहा था
- पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 206)
- प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.