शाही मुनादी सुनकर दल्क़क मस्ख़रे का गांव से शहर को दौड़ना - दफ़्तर-ए-शशुम
रोचक तथ्य
अनुवादः मिर्ज़ा निज़ाम शाह लबीब
बादशाह-ए-तिरमिज़ के पास एक मस्ख़रा दल्क़क बादशाह का बहुत चहेता था। एक-बार रुख़्सत लेकर अपने गांव गया। इसी ज़माने में बादशाह को शहर-ए-समरक़ंद में एक अहम काम पेश आया। बादशाह ने मुनादी कराई कि जो शख़्स पाँच रोज़ में समरक़ंद में जाकर जवाब-ए-बा-सवाब ले आएगा मैं इस क़दर दौलत बख़्शुंगा कि निहाल हो जाएगा।
इत्तिफ़ाक़ से दल्क़क मस्ख़रे ने भी अपने गांव में बैठे हुए ये मुनादी सुनी तो वो फ़ौरन सवार हुआ और तिरमिज़ को मारा मार पहुंचा। इस क़दर तेज़ी से मंज़िल तय की कि रास्ते में दो घोड़े मर गए।रास्ते के गर्द-ओ-ग़ुबार में अटा हुआ बिलकुल ख़िलाफ़-ए-औक़ात दरबार-ए-शाही में दाख़िल हुआ। सारे अहल-ए-दरबार में चे-मी-गोइयां होने लगीं और बादशाह को भी तरह तरह के गुमान होने लगे। शहर के ख़ास-ओ- आ’म भी परेशान हो गए कि इलाही ना जाने इस पर किया परेशानी और बला आन पड़ी है। या तो कोई ज़बरदस्त दुश्मन हमारी तरफ़ बढ़ा आ रहा है या पर्दा-ए-ग़ैब से कोई मोहलिक बला आने वाली है कि दल्क़क मस्ख़रा अपने गांव से इस क़दर मारा मार आया है कि रास्ते में क़ीमती घोड़े तक मर गए ।
बादशाह के महल पर मख़्लूक़ जमा’ हो गई ताकि मा’लूम करे कि दल्क़क मस्ख़रा इस क़दर तेज़ी से क्यों आया है। उस की जल्दी, घबराहट और कोशिश को देख कर शहर-ए-तिरमिज़ की ख़िल्क़त में एक हलकम मच गई। कोई दोनों हाथ ज़ानूओं पर मार रहा था और कोई मारे वहम के वावैला कर रहा था। इस आ’म बेचैनी और आने वाली मुसीबत के वहम से हर दिल सौ-सौ तरह के अंदेशों में मुब्तला था। हर शख़्स अपने क़ियास के मुताबिक़ नई फ़ाल लेता था। अल-ग़रज़ दल्क़क मस्ख़रे ने ख़ास बादशाह से मिलना चाहा चुनांचे बादशाह ने फ़ौरन बारयाब किया। बाहर जो भी उस मस्ख़रे से हाल पूछता था वो मुँह पर हाथ रखकर ख़ामोशी का इशारा करता था।उस की इस पर्दा-दारी से लोगों का वहम और बढ़ गया और सब हैरान-ओ-शश्दर थे कि ना जाने क्या अहम है।
आख़िर बादशाह के सामने हाज़िर हुआ और बादशाह ने दर्याफ़्त किया कि क्या बात है जल्दी बयान कर, दल्क़क मस्ख़रे ने इशारे से अ’र्ज़ किया कि ऐ बादशाह ज़रा ठहर जा ताकि मेरा सांस क़ाबू में आ जाए। ज़रा मेरे होश-ओ-हवास ठीक हों कि मैं एक अ’जीब हालत में गिरफ़्तार हूँ। घंटा भर तक बादशाह मुंतज़िर रहा यहां तक कि तरह तरह के वस्वसों से बादशाह का हल्क़ और मुँह कड़वा हो गया। बादशाह ने दल्क़क को इस हाल में कभी नहीं देखा था। वो हमेशा क़िस्म क़िस्म के लतीफ़े और मज़ाक़ तराशा करता था और बादशाह को ख़ुश रखता। वो भरे जल्से में इस क़दर हँसता था कि बादशाह दो दो हाथों से पेट पकड़ लेता था । बावजूद इस के आज ये हाल है कि चेहरा बिलकुल उतरा हुआ और ग़मगीं, और हाथ मुँह पर रखकर बादशाह को चुप रहने का इशारा करता है। इन दिनों ख़ुद बादशाह के दिल में भी एक खटका लगा हुआ था क्योंकि ख़ुर्रम शाह बहुत ख़ूँ-रेज़ बादशाह था। उस का दार-उल-सल्तनत समरक़ंद था और एक बद-तमीज़ वज़ीर उस का मुशीर हो गया था। उस बद-बख़्त ने इस तरफ़ के कई बादशाहों को हीले बहाने से और कहीं जबरन लश्कर-कशी कर के मरवा डाला था।
बादशाह-ए-तिरमिज़ भी ख़ुर्रम शाह से ख़ौफ़-ज़दा रहता था। दल्क़क की इन हरकतों से इस ख़ौफ़ में और पुख़्तगी पैदा हो गई।बादशाह ने पूछा कि जल्द बयान कर कि अस्ली बात क्या है।तेरी इस क़दर घबराहट और ख़ौफ़ किस वजह से है? आख़िर दल्क़क ने हाथ बांध कर अ’र्ज़ की कि मैंने गांव में सुना कि बादशाह ने हर तरफ़ ये मुनादी कराई है कि ऐसा आदमी चाहिए जो हमारा फ़िरिस्तादा बन कर तीन रोज़ में समरक़ंद जा पहुंचे। जब वो पैग़ाम का जवाब-ए-बासवाब ले आएगा तो उस को दौलत-ए-बे-क़ियास मिलेगी। इस मुनादी को सुनकर ऐ बादशाह मैं आपके हुज़ूर में इसलिए फ़ौरन हाज़िर हुआ हूँ कि अ’र्ज़ करूँ कि मुझमें तो ये ताब-ओ-तवाँ नहीं और ऐसी तेज़ी और फुर्ती मुझसे तो मुम्किन नहीं। लिहाज़ा मुझसे इस काम के अंजाम देने की उम्मीद ना रखिए, बादशाह ने कहा अरे तेरी इस मुस्तइ’दी पर ला’नत, कि सारे शहर में फ़िक्र-ओ-तश्वीश फैल गई। अरे बे-वक़ूफ़ तूने इतनी सी बात के लिए सारी चरागाह में आग लगा दी।
- पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 218)
- प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)
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