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सद्र-ए-जहां का ऐसे साइल को कुछ ना देना जो ज़बान से मांगे - दफ़्तर-ए-शशुम

रूमी

सद्र-ए-जहां का ऐसे साइल को कुछ ना देना जो ज़बान से मांगे - दफ़्तर-ए-शशुम

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    रोचक तथ्य

    अनुवादः मिर्ज़ा निज़ाम शाह लबीब

    शहर-ए-बुख़ारा में सद्र-ए-जहां की दाद-ओ-दिहिश मशहूर थी। वो बेहद्द-ओ-बे-हिसाब देते थे और सुब्ह से शाम तक उनके दरिया-ए-फ़ैज़ से रुपये अशर्फ़ियां बरसती रहती थीं।काग़ज़ के पुर्ज़ों में अशर्फ़ियां लिपटी रहती थीं जब तक वो ख़त्म ना हो जाएं उस वक़्त तक बराबर देते रहते थे। सद्र-ए-जहां का हाल सूरज और चांद का सा था कि जिस क़दर नूर की चमक उनको हासिल होती वो सब दुनिया पर तक़्सीम कर देते हैं। ख़ाक को ज़र बख़्शने वाला कौन है?आफ़्ताब ही तो है। सोना कान में से दमकता है और ख़ज़ाना अगर कहीं गड़ा हो तो सियाह हो जाता है। हर रोज़ के लिए एक जमाअ’त मुक़र्रर थी ताकि कोई गिरोह महरूम ना रहे।

    एक दिन मुसीबत-ज़दों के लिए,दूसरा दिन बेवाओं के लिए, तीसरा दिन मुफ़्लिस फ़क़ीरों और गोशा-नशीनों के लिए, चौथा दिन मुहताज मुल्लाओं के लिए, पांचवां दिन आ’म मिस्कीनों के लिए, छटा दिन क़र्ज़दारों के लिए,सातवाँ दिन यतीम बच्चों के लिए, आठवा दिन क़ैदियों के लिए, नवां दिन मुसाफ़िरों के लिए, दसवाँ दिन ग़ुलामों के लिए, मगर शर्त यही थी कि कोई शख़्स ज़बान से कुछ ना मांगे। बल्कि मुफ़्लिस चुप-चाप उस के रास्ते में सफ़ बाँधे दीवार की तरह खड़े रहें। जो कोई इत्तिफ़ाक़न कोई सवाल कर देता तो उस जुर्म में उस को कुछ ना देते थे यहां तक कि एक दिन एक बुड्ढे ने कहा कि भूका हूँ कुछ ज़कात दे। लोगों ने हर-चंद उस को मांगने से मना’ किया लेकिन वो अड़ गया। सद्र-ए-जहां ने कहा कि थोड़ा बे-शर्म बुढ्ढा है। उस बुड्ढे ने जवाब दिया कि मुझसे ज़ियादा बे-शर्म तू है कि इस जहान को ख़ूब खा गया और लालच कर रहा है कि इस जहान की नेअ’मतों के साथ दूसरे जहान की नेअ’मतों को भी हासिल करे। सद्र-ए-जहां को बहुत हंसी आई। उस बुड्ढे को बहुत दौलत दी और वो अकेला ही सब उठा ले गया। उस बुड्ढे के सिवा और किसी सवाल करने वाले को कभी कुछ ना दिया।

    अब सुनिए कि मुल्लाओं की बारी के दिन इत्तिफ़ाक़न एक मुल्ला मारे हिर्स के चिल्ला उठा। लिहाज़ा उसे कुछ ना मिला। वो हर-चंद रोया धोया कोई फ़ाइदा ना हुआ। तरह तरह के सवाल किए मगर सद्र-ए-जहान का दिल ना पसीजा। दूसरे दिन वही शख़्स पांव को पट्टियाँ लपेट कर बीमारों की सफ़ में अंजान जा बैठा। उसने पिंडलियों पर चारों तरफ़ खपच्चियां बांध लीं ताकि गुमान हो कि उस के पैर टूट गए हैं मगर सद्र-ए-जहां ने उसे देखकर पहचान लिया और कुछ ना दिया। तीसरे दिन एक लबादे में मुँह लपेटा और अंधा बन कर अँधों की सफ़ में जा खड़ा हुआ। जब भी सद्र-ए-जहां ने पहचान लिया और सवाल करने के जुर्म में कुछ ना दिया। जब सारी मक्कारियां कर के आ’जिज़ गया तो औ’रतों की तरह एक चादर सर पर ओढ़ी और बेवाओं के बीच में जाकर बैठ गया। सर झुका लिया और हाथ छुपा लिए। जब भी सद्र-ए-जहां ने उसे पहचान कर कुछ ना दिया। इस से उस के दिल में ग़म की आग भड़क उठी।

    वो कफ़न-चोर के पास सवेरे ही पहुंचा और फ़र्माइश की कि मुझे एक नमदे में लपेट कर रास्ते के किनारे जनाज़ा बना कर रख दो। किसी से कुछ ना कहो। राह तकते हुए बैठे रहो। यहां तक कि सद्र-ए-जहां इधर से गुज़रें। मुम्किन है कि वो देखें और मुर्दा गुमान कर के तज्हीज़-ओ-तक्फ़ीन के लिए कुछ अशर्फ़ियां ताबूत में डाल दें जो कुछ मिलेगा उस में आधा तुम्हें दूँगा। उस कफ़न-चोर फ़क़ीर ने ऐसा ही किया कि उस को एक नमदे में लपेट कर रास्ते में रख दिया। हसब-ए-मा’मूल सद्र-ए-जहां उधर से गुज़रे तो उन्होंने चंद अशर्फ़ियां उस नमदे पर डाल दीं। मुल्ला ने घबरा कर फ़ौरन हाथ बाहर निकाले कि कहीं वो कफ़न-चोर ना उठाले और ख़ुद ही ना ऐंठ ले। उस मुर्दे ने फ़ौरन नमदे से दोनों हाथ बाहर निकाले और साथ ही सर भी बाहर निकाला और सद्र-ए-जहां से मुख़ातिब हो कर कहा, दरवाज़ा-ए-करम बंद करने वाले देखा! आख़िर लेकर ही छोड़ा। सद्र-ए-जहां ने जवाब दिया कि अरे मर्दूद जब तक तू ना मरा हमारी सरकार से कोई फ़ाइदा हासिल ना कर सका।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 227)
    • प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)

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