Font by Mehr Nastaliq Web
Sufinama

एक शख़्स का ख़्वाब देखकर खज़ाने की उम्मीद पर मिस्र को जाना - दफ़्तर-ए-शशुम

रूमी

एक शख़्स का ख़्वाब देखकर खज़ाने की उम्मीद पर मिस्र को जाना - दफ़्तर-ए-शशुम

रूमी

MORE BYरूमी

    रोचक तथ्य

    अनुवादः मिर्ज़ा निज़ाम शाह लबीब

    एक शख़्स को विरासत में माल-ए-कसीर हाथ आया। वो सब खा गया और ख़ुद नंगा रह गया सच है कि मीरास का माल नहीं रहा करता। जिस तरह दूसरे से अलग हुआ उसी तरह यहां भी जुदा हो जाता है। मीरास पाने वाले को भी ऐसे माल की क़दर नहीं होती जो बे मेहनत और तकलीफ़ हाथ जाता है।ऐ शख़्स तुझे भी जान की क़दर इसीलिए नहीं है कि हक़ ने तुझे मुफ़्त ब्ख़्शी है। अल-ग़र्ज़ उस शख़्स का नक़्द-ओ-जिन्स और जाएदाद सब क़ब्ज़े से निकल गई और उल्लूओं की तरह वीराने में रहने लगा।

    उसने बारगाह-ए-इलाही में अ’र्ज़ कि कि तूने मुझे सर-ओ-सामान दिया था वो जाता रहा। लिहाज़ा तू अब मुझे सर-ओ-सामान-ए-ज़िंदगी इ’नायत कराया मौत भेज दे। इस दुआ’ और गिड़गिड़ाहट में उसने दोनों हाथ पीटे। उस ज़बरदस्त को बे मेहनत ज़र की तलब थी लेकिन वो कौन है जो ख़ुदा की रहमत के दरवाज़े को खटखटाए और उस की क़ुबूललियत में सौ बहारें ना पाए।उसने रात को ख़्वाब में देखा कि एक फ़रिश्ता कहता है कि तुझे शहर-ए-मिस्र में दौलत मिलेगी। तू मिस्र को जा, वहां तेरा काम बन जाएगा। ख़ुदा ने तेरी गिर्या-ओ-ज़ारी को क़ुबूल किया। फ़ुलां गांव में एक बड़ा ख़ज़ाना है। उस की तलाश में तुझे मिस्र जाना होगा। फ़ुलां बस्ती के फ़ुलां कूचे में एक ख़ज़ाना दफ़्न है तू बग़दाद से होता हुआ फ़ौरन मिस्र को जा और उसे हासिल कर।

    ये ख़ुश-ख़बरी सुनकर कमर-ए-हिम्मत चुस्त हो गई और इसी उम्मीद पर कि फ़रिश्ते ने ख़ज़ाना बताया है वो शख़्स बग़दाद से मंज़िलें तय करता हुआ मिस्र पहुंचा। लेकिन वहां पहुंचते पहुंचते उस के पास पैसा टका कुछ ना रहा और ज़ालिम पेट ने मजबूर किया कि किसी से सवाल करे। हर-चंद शर्म दामन-गीर थी मगर भूक ने बे-हवास कर डाला था। अपने जी में कहता, बेहतर है कि रात के वक़्त छुपता छुपाता बाहर निकलूं ताकि अंधेरे में भीक मांगने से शर्म ना आए। मैं ना’रा लगाने वाले फ़क़ीर की तरह दूर से सदा दूं ताकि कोठों पर से पैसा धेली मिल जाये। इसी सोच में बाहर निकला और चारों तरफ़ हिचकिचाता हुआ। फिरने लगा। कभी शर्म और अपनी क़दीम आ’दत माने’ आती थी और कभी भूक दस्त-ए-सवाल बढ़ाने पर मजबूर करती थी। एक पहर रात तक यही हालत रही कभी क़दम आगे करता और कभी पीछे हटा लेता और अपने दिल से सवाल करता कि अब सवाल करूँ या भूका प्यासा सो जाऊं। इत्तिफ़ाक़ से उस ज़माने में अहल-ए-शहर चोरों से सख़्त परेशान और तकलीफ़-ज़दा थे। रातें अँधेरी और कोतवाल–ए-शहर चोरों की जुस्तुजू में था यहां तक कि ख़लीफ़ा ने भी हुक्म दे दिया था कि जो शख़्स रातों को गशत लगाता नज़र आए अगर मेरा अ’ज़ीज़ भी हो तो भी उस के हाथ काट लो। अहल-ए-दरबार ने भी कोतवाल पर ता’ना किया था कि तुम्हारी कोतवाली में चोर इस क़दर ज़ियादा क्यों हो गए हैं। बादशाह ने इ’ताब किया था कि इन बदमआ’शों को गिरफ़्तार करो वर्ना सबकी सज़ा तुमको मिलेगी ताकि अहल-ए-शहर इस आए दिन की मुसीबत से नजात पाएं।

    ग़रज़ कोतवाल तो ग़ज़बनाक था ही उस शख़्स को जो रात में इस तरह दुबकते और चक्कर लगाते देखा तो पकड़ कर ख़ूब पीटा कि बता तू कौन है? उस फ़क़ीर मुसाफ़िर ने बे-इख़्तियार चीख़ना चिल्लाना शुरूअ’ किया और कहा कि लिल्लाह मुझे ना मारो जो अस्ल हक़ीक़त है वो मैं बयान करता हूँ। कोतवाल ने हाथ रोक कर कहा कि अच्छा तो बता कि तू इतनी रात को बाहर क्यों निकला था। तू यहां का रहने वाला नहीं है, तू कहीं दूर का रहने वाला बदमआ’श मा’लूम होता है। उसने बड़ी क़समें खाकर कहा कि ना मैं चोर हूँ ना जेब-कतरा, ना मैं उठाई-गीरा हूँ ना ख़ूनी, मैं तो इस शहर में ब-हैसियत मुसाफ़िर के आया हूँ और बग़दाद का रहने वाला हूँ। फिर अपने ख़्वाब और उस खज़ाने का वाक़िआ’ बयान कर दिया।और कोतवाल को भी उस की बात सच मा’लूम हुई। उस के क़समें खाने से सच्चाई की ख़ुशबू आई। कोतवाल ने कहा कि बे-शक तू ना चोर है ना राहज़न बल्कि महज़ एक ख़्याल पर हिर्स-ओ-नादानी से तूने इतना दूर दराज़ का सफ़र इख़्तियार किया अब ये सुनकर कि तुझे तो बग़दाद में मिस्र का ख़ज़ाना नज़र आया और मैंने इसी मिस्र में कई बार ये ख़्वाब देखा कि बग़दाद में एक पोशीदा ख़ज़ाना है और फ़ुलां मौज़ा’ और फ़ुलां कूचे में दफ़ीना है और कूचे और मकान का नाम उसी खज़ाने के नाम पर है बल्कि यहां तक भी बताया गया कि मकान के फ़ुलां हिस्से में दबा है जा और निकाल ले। अ’ज़ीज़ मैंने अपने जी में कहा कि ख़ज़ाना तो ख़ुद मेरे घर में है मुझे वहां जाने की क्या मोहताजी है मैं अपने खज़ाने पर बैठा हुआ हूँ और मोहताजी के मारे मरा जाता हूँ। क्योंकि अपने खज़ाने से ग़ाफ़िल और ख़ुद छुपा हुआ हूँ।

    मुसाफ़िर फ़क़ीर ने जो ये ख़ुश-ख़बरी सुनी तो बे-ख़ुद हो गया। उस का सारा दर्द जाता रहा और अपने जी में कहा इस क़दर लातें खाने पर नेअ’मत का मिलना मौक़ूफ़ था। मेरी दुकान में तो ख़ुद आब-ए-हैवाँ मौजूद था। फिर कोतवाल से कहा अल्हम्दुलिल्लाह अ’जीब-ओ-ग़रीब दौलत हाथ आई वो सब मेरे वह्म का अंधापन था कि मैं अपने को मुफ़्लिस समझता था। मगर चाहे तुम मुझे अहमक़ कहो चाहे अ’क़्ल-मंद जो मेरा दिल चाहता था वो मैंने यहीं पाया।

    फिर वो मिस्र से बग़दाद को सुजूद-ओ-रुकूअ’ करता और हम्द-ओ-सना पढ़ता वापस हुआ। वो सारे रस्ते हैरान और इस तअ’ज्जुब से बे-ख़ुद रहा कि देखो हमारी तलब का रस्ता क्या था और रोज़ी हमें क्या मिली। मुझे उम्मीदवार किधर का बनाया था और इ’नायत-ओ-इनआ’म किधर से अ’ता हुआ। इस में क्या हिक्मत थी कि उस कान-ए-मुराद ने मुझे अपने घर से ख़ुशी ख़ुशी ग़लत रास्ते पर निकलवाया। मैं जल्दी जल्दी गुमराही की तरफ़ दौड़ रहा था और हर-आन मक़्सद-ए-हक़ीक़ी से जुदा हो रहा था फिर उसी गुमराही को ख़ुदा ने अपने ऐ’न करम से हिदायत-ओ-मक़्सूद तक पहुंचने का वसीला बना दिया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 230)
    • प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए