हज़रत-ए-हमज़ा का मैदान-ए-जंग में ज़िरह पहने ब-ग़ैर आना- दफ़्तर-ए-सेउम
अय्याम-ए-जवानी में हज़रत-ए-हमज़ा हमेशा जंगों में ज़िरह पहन कर शरीक होते थे लेकिन आख़िर-ए-उ’म्र में आपका ये हाल हुआ कि जब आप मैदान-ए-जंग में आते तो बे-ज़िरह सफ़ों पर हमला करते थे। आपका सीना खुला हुआ, तन बरहना, सब सिपाहियों के आगे आगे दुश्मन पर पहली तलवार आप ही की पड़ती थी। लोगों ने पूछा कि ऐ रसूल के चचा, ऐ सफ़ों को चीरने वाले शेर ,ऐ जवाँ-मर्दों के बादशाह क्या आपने ख़ुदा का हुक्म नहीं सुना कि अपने आप को हलाकत में ना पड़ो।
पस आप जान-बूझ कर जंग के मैदान में मौत को क्यों दा’वत देते हैं। जिस ज़माने में आप जवान और मज़बूत-ओ-क़वी थे तो उस ज़माने में कभी जंग में बे-ज़िरह ना जाते थे। अब जब कि आप बूढ़े और कमज़ोर हो गए हैं तो बे-पर्वाई करते हैं। भला तलवार किस की रियाइ’त करती है और सिनान-ओ-तीर को ऐसी तमीज़ कहाँ है, ये तो बहुत नामुनासिब है कि आप जैसा शेर दुश्मन के हाथों मारा जाए।
बे-ख़बर हवा-ख़्वाहों ने इस क़िस्म की बहुत सी नसीहतें कीं और इ’बरत दिलाई। हज़रत-ए- हमज़ा ने जवाब में फ़रमाया कि जब जवान था तो देखता था कि मौत से ये जहान हमेशा के लिए छूट जाता है, लेकिन नूर-ए-मुहम्मदी के तसद्दुक़ में अब मैं इस शहर-ए-फ़ानी का गिरफ़्तार नहीं हूँ। उस जाहिलियत की जवानी में मुझे ज़िंदगी अ’ज़ीज़ थी और अब इस्लाम के बुढ़ापे में मौत ज़ियादा प्यारी है।
- पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 143)
- प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)
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