Font by Mehr Nastaliq Web

अमीर-ए-बुख़ारा के ग़ुलाम का फ़रार होना और वापस आना - दफ़्तर-ए-सेउम

रूमी

अमीर-ए-बुख़ारा के ग़ुलाम का फ़रार होना और वापस आना - दफ़्तर-ए-सेउम

रूमी

एक अ’जीब क़िस्सा सुनो कि सदर-ए-जहाँ अमीर-ए-बुख़ारा का एक परवर्दा ग़ुलाम जिस क़दर अपने आक़ा को अ’ज़ीज़ था उसी क़दर ख़ुद अपने आक़ा का वालिह-ओ-शैदा था। आक़ा ने भी तरक़्क़ी देकर उसे कोतवाल के मुअ’ज़्ज़ज़ ओ’हदे पर सरफ़राज़ कर दिया था। इत्तिफ़ाक़ से किसी संगीन इल्ज़ाम की तोहमत लगी तो सज़ा और बे-आबरूई के ख़ौफ़ से फ़रार हो गया। दस बरस तक इधर उधर मारा मारा फिरता रहा। कभी ख़ुरासान चल दिया कभी क़ुहिस्ताँ जा निकला और कभी जंगल जंगल भटकता फिरा। दस साल की जुदाई के बा’द ताब ना रही और सदर-ए-जहाँ का शौक़ अज़-हद बढ़ गया। उस के दिल ने कहा अब तो जुदाई की क़ुव्वत नहीं बस अब वहीं चलूं। अगर ना-फ़रमानी की थी तो उस से तौबा करके फिर फ़रमांबर्दारी इख़्तियार करूँ। दफ़्अ’तन सामने हो जाऊं और उस के क़दमों पर गिर पड़ूँ और अ’र्ज़ करूँ कि ये जान हाज़िर है। चाहे ज़िंदा कीजिए चाहे गोस्फ़ंद-ए-क़ुर्बानी की तरह ज़ब्ह कर दीजिए। दूसरी जगह ज़िंदगी का बादशाह बनने से आपके क़दमों में मरना बेहतर है ख़्वाह मौत इख़्तियारी हो ख़्वाह इज़्तिरारी लेकिन ब-ग़ैर आपके मेरी ज़िंदगी अजीरन हो जाती है।

लोगों ने उस को समझाया कि तेरा अब बुख़ारा जाना ख़तरे से ख़ाली नहीं मगर उस से रहा ना गया और गिरता पड़ता बुख़ारा पहुंचा। वहाँ जिस किसी ने उसे देखा और पहचाना, उस से यही कहा कि बादशाह तुझसे सख़्त नाराज़ है और देखते ही तुझे जान से मरवा डालेगा। ये क्या हिमाक़त की कि मौत के फंदे से निकल कर फिर उसी जाल में फंसने के लिए आया है।

उसने कहा कि मैं मरज़-ए-इस्तिस्क़ा में मुब्तला हूँ मुझे पानी ख़ुद खींच रहा है। हर-चंद मैं जानता हूँ कि पानी ही मुझे मार डालेगा। चाहे पानी से कितनी ही तकलीफ़-ओ-सदमा पहुंचे इस्तिस्क़ा की बीमारी वाला पानी से कभी जुदा नहीं होता। चाहे मेरे हाथ पैर सूज जाएं और पेट फूल जाये मगर पानी का इ'श्क़ कभी कम ना होगा। उस सज़ा में कि मैं उस से भागा था मैंने ख़ुद अपने को उस की फांसी के डंडे पर लटका दिया है।

ग़रज़ हाथ बाँधे सदर-ए-जहाँ के हुज़ूर में पहुंचा। वो आ’शिक़ आँखों से आँसू बहाता जाता था और बिलकुल बे-ख़ुद था। एक हाथ में कफ़न और दूसरे में तेग़ साथ ही सारी मख़्लूक़ सर ऊंचा किए देख रही थी कि देखिए बादशाह उस के साथ क्या सुलूक करता है।आग में डालवाता है या फांसी पर लटकवाता है।

जूँही उस की नज़र सदर-ए-जहाँ पर पड़ी गोया उस की जान तन से निकल गई तन-ए-लाग़र ख़ुश्क लकड़ी की तरह ज़मीन पर गिर पड़ा जो तालू से पैर के नाख़ुन तक बिलकुल सर्द था। लोगों ने बख़ूर-ओ-गुलाब से बहुतेरे जतन किए लेकिन उसने ना हरकत की ना किसी बात का जवाब दिया।

जब बादशाह ने उस का ज़र्द चेहरा देखा तो घोड़े से उतर कर उस के पास आया और कहा कि दोस्त को ऐसा ही चुस्त-ओ-चालाक आ’शिक़ चाहिए कि जब मा’शूक़ जल्वा दिखाए तो आ’शिक़ ज़िंदा ना बचे। बे-शक तू आ’शिक़-ए-हक़ है और हक़ वही है कि जहाँ हक़ पैदा हो वहाँ तेरी ख़ुदी बाक़ी ना रहे।

सदर-ए-जहाँ के दिल में उस का ये हाल देखकर मोहब्बत की लहरें उठने लगीं उस को ज़मीन से उठा कर अपनी गोद में सर ले लिया और चेहरे पर आँसुओं की झड़ी बरसाने लगा। बादशाह ने उस के कान में आवाज़ दी कि दरयूज़ा-गर दामन फैला,याँ ज़र-ओ-जवाहर निसार हो रहा है। तेरी जान तो मेरे फ़िराक़ में तड़प रही थी, जब मैं फ़िराक़ को दूर करने आया तो फिर कहाँ ग़ाएब हो गया। अब होश में आजा और बे-ख़ुदी को दूर कर। जब मुज़्दा-ए-वस्ल सुनाई देने लगा तो मुर्दे में हल्की हल्की सी हरकत होने लगी। थोड़ी देर में ख़ुशी ख़ुशी उठ बैठा, तड़प कर एक दो बार सदक़े हुआ और सज्दे में गिर पड़ा। उस का चेहरा फूल की तरह खिल कर ताज़ा हो गया और कैफ़ियत-ए-विसाल की लज़्ज़त में हिज्र की क़ैद से आज़ाद हो गया और अ’र्ज़ करने लगा कि अ’न्क़ा-ए-हक़ ख़ुदा का शुक्र है कि आप अ’ज़मत की बुलंदी से मेरे पास उतर आए। फिर अपनी ख़ता और बद-नसीबी का इक़रार और आक़ा की जुदाई के सदमे बयान कर के वो कमज़ोर इस क़दर ज़ार-ओ-क़तार रोया कि शरीफ़-ओ-वज़ीअ’ सब रोने लगे।उस के दिल से ऐसी हाव-हू बे-इख़्तियार निकली कि औ’रत मर्द मैदान-ए-क़ियामत की तरह उस के गिर्द एक जगह जम्अ’ हो गए और उन पर भी वही हैरत और गुज़श्ता की याद पर नाला-ओ-ज़ारी की कैफ़ियत तारी हो गई जो बाज़गशता की कैफ़ियत थी।

अ’ज़ीज़ इ’श्क़ दोनों आ’लम से बे-गानगी का नाम है। इस में बहत्तर दीवानगियाँ शामिल हैं और इस का मज़हब बहत्तर फ़िर्क़ों से जुदा है और बादशाहों का तख़्त उस के नज़दीक असीरी है इ’श्क़ का गवय्या वज्द-ओ-हाल में ये गीत गाता है। बंदगी क़ैद और ख़ुदाई दर्द-ए-सर ,पस इ’श्क़ क्या है अ’दम का दरिया है जिसमें अ’क़्ल के हाथ पैर टूट जाते हैं। लो अब तो बंदगी और बादशाही की हक़ीक़त मा’लूम हुई। बस इन्ही दो पर्दों में आ’शिक़ी पोशीदा है।

स्रोत :
  • पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 144)
  • प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY
बोलिए