एक हकीम का मोर पर ए’तराज़ करना जो अपने पर आप उखेड़ रहा था - दफ़्तर-ए-पंजुम
रोचक तथ्य
अनुवादः मिर्ज़ा निज़ाम शाह लबीब
एक मोर जंगल मैँ अपने पर उखेड़ रहा था। एक हकीम भी उस तरफ़ सैर करता हुआ जा निकला। पूछा कि ऐ मोर ऐसे ख़ूबसूरत पर और तू जड़ों से उखेड़े देता है ख़ुद तेरे दिल ने कैसे क़ुबूल किया कि ऐसे नफ़ीस लिबास को नोच खसोट कर कीचड़ में फेंक दे? तेरे एक एक पर को ख़ूबसूरती की वजह से हाफ़िज़ लोग तो क़ुरआन शरीफ़ की तर्क बना रखते हैं और मुफ़ीद-ओ-ख़ुश-गवार हवा के लिए तेरे परों की पंखियाँ और पंखे बनाए जाते हैं ये कैसी ना-शुक्री और जसारत है? तू नहीं जानता कि तेरा नक़्क़ाश कौन है? या जान-बूझ कर हेकड़ी करता है और जान कर नई वज़्अ’ बनाता है?
जब मोर ने ये नसीहत सुनी तो हकीम को ग़ौर से देखा और उस के बा’द चिल्ला चिल्ला कर रोने लगा। वो मोर ऐसी पुर-दर्द आवाज़ से रोया कि सारे तमाशाई रो पड़े और जिसने पर नोचने का सबब दरयाफ़्त किया था वो ब-ग़ैर जवाब के पशेमान हो कर देखने लगा कि मैंने ना-हक़ ही इस से पूछा वो पहले ही ग़म से भरा हुआ था मैंने और छेड़ दिया। उस की आँखों से जो आँसू का क़तरा ज़मीन पर टपकता था उस में सौ-सौ जवाब मौजूद थे।
जब रो चुका तो कहा कि जा तू अभी रंग-ओ-बू में गिरफ़्तार है। ये नहीं देखता कि इन ही परों के लिए हर तरफ़ से सैंकड़ों बलाओं का नुज़ूल मुझ पर होता है। कितने बे-रहम शिकारी हैं जो इनही परों की ख़ातिर हर तरफ़ जाल लगाए हैं और कितने तीर-अंदाज़ हैं जो इनही परों के वास्ते मुझ पर तीर चलाते हैं। चूँकि ऐसी मौत, ऐसी आफ़त और ऐसे फ़ित्ने से अपने को बचाए रखने की मुझमें ताक़त नहीं इसलिए बेहतर यही है कि बद-नुमा-ओ-बद-शक्ल हो जाऊं ताकि इस पहाड़ के दामन और इस जंगल में महफ़ूज़ रहूँ। मेरे नज़दीक जान बाल-ओ-पर से हज़ार दर्जा बेहतर है क्योंकि वो बाक़ी रहने वाली और जिस्म फ़ना होने वाला है। ऐ जवान ये पर मेरे ग़ुरूर का आला बन गए हैं और ग़ुरूर मग़्रूरों को सौ बलाओं में मुब्तला करता है। ऐ अ’ज़ीज़! सलामती चाहता है तो ग़ुरूर के अस्बाब को तर्क कर दे।
- पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 166)
- प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)
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