कहानी -1-बुढ़ापा- गुलिस्तान-ए-सा’दी
दमिश्क़ की जामा’ मस्जिद में कुछ अ’क़्लमन्द लोग इकठ्ठा थे और ये किसी बात पर बहस कर रहे थे। मैं भी उसमें शरीक था।
एक नौजवान वहाँ आया और पूछने लगा, इस मज्मे’ में कोई ऐसा आदमी है जो फ़ारसी भाषा जानता हो?
सबने मेरी तरफ़ इशारा कर दिया। मैंने पूछा, ख़ैरियत तो है?”
उसने कहा, एक डेढ़ सौ साल का बूढ़ा आख़िरी साँसें ले रहा है। वह फ़ारसी भाषा में कुछ कह रहा है जो हमारी समझ में तो आता नहीं। अगर आप वहाँ तक चलने की थोड़ी तकलीफ़ बर्दाश्त करें तो बड़ा सवाब मिलेगा। शायद वह कोई वसिय्य्त कर रहा है।
जब मैं उस बूढे के सिरहाने पहुँचा तो उसे यह कहते हुए पाया :
'मैंने सोचा था कि ऐ’श के साथ कुछ साँस ले लूँ। अफ़सोस कि मेरी साँस की नली ही बन्द हो गई।
'अफ़सोस कि ज़िन्दगी के दस्तरख़्वान पर जहाँ तरह-तरह के खाने चुने हुए थे, मैं सिर्फ़ चन्द लुक़्मे ही खा पाया कि मुझसे 'बस करो!' कह दिया गया।'
मैंने इन शब्दों का अर्थ शाम देश के निवासियों को अ'रबी भाषा में समझा दिया। वे लोग आश्चर्य करने लगे कि इतना बड़ा आदमी कितनी हसरतें लिए मर रहा है!
मैंने बूढ़े के पास जाकर पूछा, क्या हाल है?
उसने उत्तर दिया, मैं क्या बताऊँ? क्या तूने नहीं देखा है कि जिस व्यक्ति के मुंह से एक दांत निकालते हैं उस पर क्या बीतती है? इससे यह अन्दाज़ा लगा कि जिसकी सारी जान ही अपने प्यारे जिस्म को छोड़ रही हो उसकी क्या हालत होगी?
मैंने उससे कहा, आप मरने के डर को दिल से निकाल दें और बे-कार वहम न करें। यूनान के दार्शनिकों ने कहा है कि अच्छी सेहत इस बात का ज़िम्मा नहीं ले सकती कि मौत नहीं होगी और ख़तरनाक बीमारी में भी ज़रूरी नहीं है कि मरीज़ मर ही जाएगा। आप कहें तो मैं किसी हकीम को बुला दूँ जो आपका इ’लाज कर दे।
बूढ़े ने निगाह उठाई और हंसकर कहा, 'क़ाबिल से क़ाबिल हकीम भी जब किसी बूढ़े दोस्त को बीमार पड़ा हुआ देखता है, तो हाथ मलने लगता है।”
मकान मालिक अपने मकान के दरवाज़े पर बेल-बूटे बनवाकर उसकी ख़ूबसूरती बढ़ाने की फ़िक्र में है। उसे यह नहीं मा’लूम कि मकान पीछे से गिरना शुरू’ हो गया है।'
'बूढ़ा आदमी तो तकलीफ़ से दम तोड़ रहा है और उसकी बुढ़िया उसे आराम पहुँचाने के लिए उसके शरीर पर चन्दन मल रही है।'
'जब शरीर को क़ाइम रखने वाले तत्त्व ही तितर-बितर हो जाएँ तो न दवा काम करती है, न दुआ’, न गंडे-ता’वीज़।'
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