कहानी -17-राजनीति- गुलिस्तान-ए-सा’दी
कुछ सूफ़ी लोग मेरे पास ठहरे हुए थे। देखने में वे लोग बड़े भले मा’लूम होते थे और कई लोग उनसे प्रभावित भी हुए।
एक अमीर इन लोगों के बाहरी व्यवहार और आचार-विचार से बहुत ख़ुश हुआ। उसने इनके लिए कुछ वज़ीफ़ा निश्चित कर दिया।
कुछ ही समय पश्चात् इनमें से एक ने ऐसी हरकत कर दी जो फ़क़ीरों को नहीं करनी चाहिए थी। अमीर ने नाराज़ होकर उन सबका वज़ीफ़ा बन्द कर दिया।
मैंने चाहा कि किसी तरह उन ग़रीबों की रोज़ी फिर से खुलवा दूँ। मैं उस अमीर के दरबार में पहुँचा, लेकिन उसके दरबान ने मुझे अन्दर जाने से रोका और मेरे साथ बद-तमीज़ी से पेश आया। मैंने सोचा कि इस दरबान का कोई दोष नहीं है,क्योंकि समझदार लोगों ने कहा है, 'अमीर, वज़ीर और बादशाह के दरवाज़े पर बिना किसी ज़रिए-वसीले के चक्कर नहीं काटना चाहिए जहाँ कुत्ते भी रहते हैं, और दरबान भी। दरबान तो गिरेबान पकड़ लेता है और कुत्ता दामन।'
जब अमीर के मुसाहिबों को मेरे आने का पता चला तो वे सम्मान के साथ मुझे अन्दर ले गए और मुझे बैठने के लिए ऊँचा आसन देने लगे। मैंने नीचे ही बैठना पसन्द किया और कहा, मुआ’फ़ कीजिए, मैं एक साधारण-सा मनुष्य हूँ। मुझे तो आप अपने ग़ुलामों में बैठने दीजिए।
अमीर बोला, सुब्हानल्लाह। यह आप क्या कह रहे हैं? आप मेरे सिर आँखों पर बैठे तो मैं अपने आप को धन्य मानूँगा और आपके नाज़ उठाऊँगा, क्योंकि आप मुझे बहुत प्रिय हैं।
मैं उसके पास बैठ गया और धीरे-धीरे मतलब की बात पर आ गया। जब उन सूफ़ियों की ग़लती का ज़िक्र आया तो मैंने कहा, जिस मालिक ने इतने दिन इन'आम-इकराम किया, उसने उन ग़रीबों की क्या ख़ता देखी, जो नज़रों से गिरा दिया और उनकी रोटी बन्द कर दी? बड़प्पन और उदारता तो ख़ुदा का देखने योग्य है, कि इन्सान ख़ता करता है और वह उसे फिर भी रोज़ी देता रहता है।
अमीर पर इस बात का प्रभाव पड़ा। उसने उन सूफ़ियों का वज़ीफ़ा फिर से जारी करने का और जो रक़म इस बीच उन्हें नहीं दी गई थी उसे भी चुकता करने का आदेश दिया।
मैंने इसके लिए उसे धन्यवाद दिया और साफ़ बात कह डालने के लिए नम्रतापूर्वक क्षमा माँगी। मैंने कहा, 'का’बा पहुँचने पर लोगों की मुराद पूरी होती है, इसीलिए वहाँ हज़ारों कोस से लोग ज़ियारत करने आते हैं। तुझे हम जैसों की बातें बर्दाश्त करनी चाहिए क्योंकि लोग उसी पेड़ पर ढेले मारा करते हैं, जिस पर फल होता है। बिना फल वाले पेड़ को कौन छेड़ेगा?
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