कहानी-20- फ़क़ीरी गुलिस्तान-ए-सा’दी
बड़े शैख़ अबुल फ़र्ज इब्न-ए-जौज़ी मुझे शिक्षा दिया करते थे कि मैं गाना सुनना छोड़ दूँ और एकान्त का आनन्द लेना सीखूँ। जितना ज़ियादा वे मुझे रोकते, मेरी गाना सुनने की इच्छा उतनी ही तीव्र होती। मुझ पर जवानी का जोश छाया हुआ था और मन में भोग-विलास के लिए बड़ा मोह था। मैंने शैख़ साहब की नसीहत की परवाह न की। कभी उनकी बातें याद आती तो कहता—
'क़ाज़ी अगर हमारी मज्लिस में आकर बैठेगा तो वह भी तालियाँ बजाएगा और अगर मुंसिफ़ शराब पिएगा तो वह शराबियों को मु’आफ़ कर देगा।'
एक रात मैं एक मज्लिस में पहुँचा। वहाँ एक गवैया बड़ा ही बेसुरा गाना गा रहा था। मैंने मन में सोचा, इस गवैए की आवाज़ तो शह-ए-रग को छीले डालती है। जितनी बुरी इसकी आवाज़ है, उतनी तो शायद बाप की मौत पर मातम करने वाले की भी न होगी।
मज्लिस में बैठे लोग अपनी उंगलियाँ या तो कानों पर रखते थे कि वह आवाज़ सुनाई न दे या होठों पर कि गवैया उनका इशारा देखकर ख़ामोश हो जाए।
जब वह गवैया बरबत पर और भी ज़ोर से गाने लगा तो मैंने मेज़बान से कहा, या तो मेरे कानों में रुई ठूस दीजिए या मेरे लिए दरवाज़ा खोल दीजिए ताकि मैं बाहर चला जाऊँ।
शिष्टाचार निभाने के लिए मुझे रात-भर वहाँ रुकना पड़ा। मैंने वह रात बड़ी मुश्किल से काटी। सुब्ह मैंने अपने सिर की पगड़ी उतारी और पटके से एक दीनार निकाला। मैंने उपहार के रूप में दोनों चीजें गवैए को दे दीं और उसके साथ गले मिलकर उसका शुक्रिया अदा किया।
मेरे मित्रों ने मेरे इस व्यवहार पर आश्चर्य प्रकट किया। वे मन-ही मन मेरी इस मुर्खता पर हंस रहे थे। उनमें से एक मित्र से नहीं रहा गया। वह कहने लगा, यह काम तूने अ’क़्लमन्दों की शिक्षा के ख़िलाफ़ किया है! तेरी पगड़ी तेरे बुज़ुर्गों की निशानी थी और वह दीनार भी ऐसे कुपात्र को नहीं मिलना चाहिए था जिसके हाथ में उ’म्र-भर एक दिरम भी नहीं आया होगा और जिसके दामन में कभी सोने का एक ज़र्रा भी नहीं पड़ा होगा।.
मज्लिस में सभी लोग उस गवैए की निन्दा कर रहे थे। वे कह रहे थे, ख़ुदा करे ऐसा गवैया इस ऊँचे घराने से दूर ही रहे। ऐसे गवैए को किसी ने एक ही जगह दुबारा नहीं देखा होगा।
सच तो यह है कि ज्योंही उसकी भद्दी आवाज़ मुंह से निकली कि सुनने वालों के रोंगटे खड़े हो गए।
महल के परिन्दे भी उसके डर से उड़ गए। उसने बेकार ही अपना गला फाड़ा और हमारा भेजा खा गया।
मैंने कहा, अब मुनासिब यही है कि आप लोग उसकी बुराई न करें मुझे उसके गुणों का पता चल गया है।
मेरा मित्र बोला, मुझे भी कुछ बता दीजिए जिससे मैं उसके पास जाकर इस मज़ाक़ के लिए उससे मु’आफ़ी माँग लूँ।
मैंने कहा, मैं इस गवैए का इसलिए आभारी हूँ कि इसने आज मुझे एक बहुत बड़ी शिक्षा दी है। बड़े शैख़ साहब ने मुझे कई बार नसीहत की थी पर मेरे कानों पर जूँ तक न रेंगी। कल मेरे सितारे कुछ अच्छे थे। इस गवैए को सुनकर मुझे वह नसीहत याद आ गई। मैंने इसी गवैए के हाथ पर तौबा कर ली कि अब ज़िन्दगी भर न कभी गाना सुनूँगा और न लोगों में मेल-जोल बढ़ाऊँगा।
आवाज़ यदि अच्छी है और वह मोटे होठों, मुंह और कंठ में निकल रही है, तो दिल को लुभाती है। गवैए की आवाज़ ही ख़राब है, तो चाहे कोई भी राग और सुर निकाले, वह अच्छा नहीं लगेगा।
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