कहानी -23-सन्तोष- गुलिस्तान-ए-सा’दी
एक मालदार के बारे में मैंने सुना है कि वह अपनी कंजूसी के लिए उतना ही प्रसिद्ध था जितना कि हातिम ताई दान देने के लिए। दुनिया-भर की दौलत उसने इकट्ठी कर रखी थी, फिर भी दिल इतना छोटा था कि वह रोटी के एक-एक टुकड़े के लिए जान देता था।
शायद वह हज़रत अबू हुरैरा की बिल्ली को भी एक लुक़्मा न डालता और न असहाब-ए-कहफ़ के कुत्ते के लिए एक हड्डी छोड़ता। जब कभी उसके घर का दरवाज़ा खुलता तो उसके दस्तरख़्वान को कोई देख भी नहीं पाता। फ़क़ीर सिर्फ़ उसके खाने की ख़ुशबू सूँध सकता था। खाना ख़त्म होने के बा’द एक दाना भी न बचता जिसे कोई चिड़िया भी चुग ले।
मैंने सुना कि उसका इरादा मिस्र की खाड़ी से होकर मिस्र जाने का हुआ। फ़िरऔ’न की तरह घमंड में चूर होता हुआ वह रवाना हुआ। कहते हैं कि हवा उसकी कश्ती के ख़िलाफ़ चल पड़ी और उसे समुद्र में जा डुबोया।
'तेरी आत्मा तेरे दुष्ट मन का साथ कैसे दे? समुद्र की हवा सदा कश्ती के अनुकूल नहीं होती।' डूबते समय उसने दुआ’ के लिए हाथ उठाए और चीख़ना-चिल्लाना शुरू’ कर दिया, लेकिन सब बेकार गया।
'मुसीबत आ पड़ने पर दुआ’ के लिए हाथ उठाने से क्या होता है? सब बेकार है यदि केवल दुआ’ के वक़्त तो हाथ ऊपर उठे और ख़ैरात करने के वक़्त बग़ल में दबा लिए जाएँ।'
'अपनी चाँदी और सोने से दूसरों को भी आराम पहुँचा और ख़ुद भी सुख उठा। यह घर-बार तो तुझसे छूट ही जाएगा। इन सोने और चाँदी की र्इंटों में से कम-से-कम एक ईंट तो ख़ैरात में ख़र्च कर दे।
कहते हैं कि उसके ग़रीब रिश्तेदार मिस्र में थे।
उसके बा’द उसके छोड़े हुए धन से वे मालदार हो गए। उन्होंने अपने पुराने कपड़े फाड़ डाले और रेशमी पोशाकें बनवाईं।
उसके एक रिश्तेदार को मैं पहले से जानता था। मैंने उसकी आस्तीन पकड़ कर कहा, ऐ नेक और पाक-दिल इन्सान। ख़ूब खा इस दौलत को। उस कंजूस ने तो इसे जम्अ’ ही किया, खाया नहीं।
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