कहानी -24-राजनीति- गुलिस्तान-ए-सा’दी
ज़ोज़न के बादशाह का एक वज़ीर था जो कुलीन और अच्छे स्वभाव का था। वह लोगों को उचित सम्मान देता था और पीठ पीछे किसी की बुराई नहीं करता था। एक बार बादशाह किसी बात पर उससे नाराज़ हो गया। उसने वज़ीर पर जुर्माना कर दिया और उसे जेल भिजवा दिया।
बादशाह के सिपाही वज़ीर में सहानुभूति रखते थे। वज़ीर ने उन पर कई उपकार कर रखे थे। उन्होंने जेल में भी उसके साथ अच्छा व्यवहार किया और कभी उसका दिल नहीं दुखाया।
'यदि तू शत्रु के साथ शान्ति से रहना चाहता है, तो चाहे वह पीठ पीछे तेरी बुराई करता फिरे, तू सदा उसके सामने उसके गुणों का ही बखान कर।
'कड़वी बात हमेशा मुंह से ही हो कर गुज़रती है। यदि तू कड़वी बात नहीं सुनना चाहता, तो कहने वाले का मुंह मीठा कर दे।'
बादशाह ने वज़ीर पर जो आरोप लगाए थे उनमें से कुछ से तो वह छूट गया किन्तु कुछ ऐसे थे कि वह अपने निर्दोष होने का प्रमाण नहीं दे सका। इसलिए उसे जेल में ही रहना पड़ा।
इसी बीच पड़ोस के किसी दुसरे बादशाह ने चोरी-छिपे उसके पास सन्देश भेजा कि तेरे बादशाह ने तेरा महत्त्व नहीं समझा और तेरा अपमान किया है।
यदि तू हमसे मिल जाए तो हम तुझे क़ैद से छुड़वा देंगे और तुझे ख़ुश रखने की पूरी कोशिश करेंगे। इस हुकूमत के बड़े हाकिम तुझसे मिलना चाहते हैं और जवाब का इन्तिज़ार कर रहे हैं ।'
वज़ीर ने जब यह सन्देश पढ़ा तो फ़ौरन समझ गया कि कौन-सा संकट आने वाला है। उसने उसी पत्र के पीछे एक छोटा-सा उत्तर लिखकर भेज दिया।
संयोग से बादशाह के किसी आदमी को पता चल गया और उसने बादशाह को सूचित कर दिया कि यह क़ैदी पड़ोस के बादशाह से पत्र-व्यवहार करता है।
बादशाह को बहुत क्रोध आया। उसने तुरन्त आदेश दिया कि उस जासूस का पता लगाया जाए। पत्र ले जाने वाला आदमी पकड़ लिया गया। पत्र पढ़ा गया। उसमें लिखा था, आपने जो मेरी ता’रीफ़ की है, मैं उसके लायक़ नहीं हूँ और जो मेहरबानी आप मुझ पर करना चाहते हैं उसे मैं क़ुबूल नहीं कर सकता। मैं इसी शाही ख़ानदान के टुकड़ों पर पला हूँ। यदि बादशाह ने किसी कारण मुझे थोड़ी-सी तकलीफ़ भी पहुँचाई है तो इसको लेकर मैं उसके पुराने एहसानों को नहीं भूल जाऊँगा, मैं उसके साथ बे-वफ़ाई नहीं कर सकता।'
जिस मेहरबान ने क़दम-क़दम पर तुझ पर मेहरबानी की हो, यदि वह हम पर एक ज़ुल्म भी कर दे, तो उसे मुआ’फ़ कर देना चाहिए।
बादशाह को वज़ीर की यह बात बहुत अच्छी लगी। ख़ुश होकर उसने इनआ’म और पोशाक दी और क्षमा माँगते हुए कहा, 'मुझसे ग़लती हुई जो मैंने तुझ बे-क़सूर को सज़ा दी।
वज़ीर बोला, ऐ मालिक! इसमें आपका कोई क़ुसूर नहीं। ख़ुदा की मर्ज़ी यही थी कि मुझे तकलीफ़ हो और जब तकलीफ़ मुझे पहुँचनी ही थी तो अच्छा हुआ कि आपके हाथों पहुँची, जिनका मुझ पर पहले से ही हज़ारों एहसान हैं और जिन्होंने मुझे हज़ारों इनआ’म दिए हैं। अ’क़्लमन्दों ने कहा है, 'यदि दुनिया वालों से तुझे तकलीफ़ पहुँचे, तो दुखी मत हो, क्योंकि दुनिया वाले न किसी की तकलीफ़ पहुँचा सकते हैं और न आराम
'दोस्त या दुश्मन ख़ुदा की मर्ज़ी से ही बन जाया करते हैं क्योंकि सबके दिल उसी के क़ब्ज़े में हैं।'
तीर यूँ तो कमान से निकलता है किन्तु अ’क़्लमन्द उसे कमान चलाने वाले की तरफ़ से ही आया हुआ मानते हैं।'
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