कहानी-28- फ़क़ीरी गुलिस्तान-ए-सा’दी
एक बादशाह मरते दम तक किसी को अपना वारिस नहीं बना सका। अन्तिम समय में उसने घोषणा की कि उसकी मृत्यु के अगले दिन सुब्ह सुब्ह जो व्यक्ति सबसे पहले उस शहर के दरवाज़े से प्रवेश करे उसी को बादशाह बना दिया जाए।
संयोग से वह व्यक्ति एक फ़क़ीर था जिसने तमाम उ’म्र टुकड़े जमा’ किए थे और फटे चीथडों पर पैवंद लगाकर शरीर ढका था।
वज़ीरों और अमीरों ने बादशाह की अन्तिम इच्छा का सम्मान करके उसी के सिर पर ताज रख दिया। तमाम ख़ज़ानों और क़िलों’ की चाबियाँ भी उसे सौंप दी गईं।
एक दिन उसका एक पुराना साथी उधर आ निकला और उससे बोला, अल्लाह-तआ’ला का लाख लाख शुक्र है कि तेरे नसीब ने ज़ोर मारा और तुझे बादशाहत मिल गई तेरे पैरों से कांटे निकल गए और तुझे उनके स्थान पर फूल मिले। किसी ने ठीक कहा है कि मुसीबत के बा’द सुख के दिन आते हैं।
'कली कभी खिलकर फल बन जाती है और कभी मुरझाकर गिर जाती है। पेड़ कभी नंगा हो जाता है और कभी हरी-भरी पत्तियों से लद जाता है।'
वह बोला, अरे भाई, मेरे साथ हमदर्दी कर और मेरे लिए दुआ’ कर। मेरा यहाँ होना कोई ख़ुशी की बात नहीं है। जब तूने मुझे पहले देखा था तब मुझे केवल एक रोटी की चिन्ता थी। अब दुनिया भर की है। अगर दुनिया न मिले तो हम दुखी होते हैं और मिल जाए तो उसके लोभ में फंस जाते हैं। दर-अस्ल इस दुनिया से बढ़कर कोई मुसीबत नहीं है। यह न मिले तो दुख देती है और मिले तो भी दुख ही देती है। यदि तु धनवान होना चाहता है तो सन्तोश कर। वही सबसे बड़ा धन है।
यदि अमीर दामन भर कर सोना लुटा दे, तो इसे कोई बहुत बड़ा काम मत समझ। मैंने सुना है कि फ़क़ीर का सब्र अमीर की ख़ैरात से कहीं बढ़कर है।
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