कहानी-34- फ़क़ीरी गुलिस्तान-ए-सा’दी
एक आ’बिद बेचारा जंगल में रहता था और पेड़ों की पत्तियाँ खा खा कर गुज़ारा करता था। एक दिन एक बादशाह उसकी ख़िदमत में हाज़िर हुआ और बोला, यदि आप चाहें तो मैं शहर में आपके रहने के लिए मकान बनवा दूँ। यहाँ आप इत्मीनान से इ’बादत करे, लोग आपके दर्शन और आशीर्वाद से लाभ उठाएँ। सबको आपसे अच्छे कर्म करने की प्रेरणा मिलेगी।
फ़क़ीर को यह बात पसन्द नहीं आई।एक वज़ीर ने उससे कहा, बादशाह की इतनी इच्छा है तो आप दो-तीन दिन के लिए ही शहर चले चलिए। वहाँ रहकर देख लें।यदि आपको कोई कष्ट हो तो आप वापस आ जाएगा।
कहते हैं कि बहुत आग्रह करने से वह फ़क़ीर शहर में आ गया। बादशाह ने बग़ीचे के बीच में बने एक आ’लीशान महल में उसे रहने की जगह दे दी। यह जगह इतनी सुन्दर थी कि लगता जैसे स्वर्ग यहीं पर हो।
यहाँ के गुलाब का फूल मा’शूक़ के गुलाबी गालों की तरह सुर्ख़ और सुन्दरथा। यहाँ सुब्ह मा'शूक़ की मुश्कीं-ज़ुल्फ़ों की तरह महकती थी। हरियाली और तर-ओ-ताज़गी में डूबा हुआ बाग़ीचा ऐसा लगता था जैसे हाल का पैदा हुआ बच्चा, जिसने अभी दाई का दूध भी न पिया हो।
बादशाह ने फ़क़ीर की सेवा के लिए चाँद-से मुखड़े वाली एक दासी रख दी। परिन्दों जैसी उसकी आ'दतें और मोर जैसा दिलकश उसका दहन।
इसके अ'लावा एक ग़ुलाम भी उस फ़क़ीर की ख़िदमत में भेजा गया। वह ग़ुलाम नौजवान, सुडोल और सुन्दर था।
फ़क़ीर स्वादिष्ट भोजन खाने लगा और क़ीमती वस्त्र पहनने लगा। भोग-विलास में पड़कर फ़क़ीर का मन डांवाडोल हो गया और उसका चैन जाता रहा। लोगों ने ठीक ही कहा है, 'चाहे कोई फ़क़ीर हो, पीर हो, मुरीद हो या ऊँचे विचारों वाला शाइ’र, जब वह संसार के लोभ में पड़ जाता है, तो उसकी दशा शहद में फंसी हुई मक्खी के समान हो जाती है।
बादशाह जब दूसरी बार फ़क़ीर से मिलने आया, तो यह पहचान में नहीं आता था। अब वह गोरा और मोटा हो गया था और उसके शरीर पर ख़ून की सुर्ख़ी थी। वह रेशमी तकिया का सहारा ले कर लेटा हुआ था।
उसे सुखी देखकर बादशाह ख़ुश हुआ। इधर-उधर की बातें होने लगी। अन्त में बादशाह ने कहा, मैं दो तरह के लोगों को अपना दोस्त समझता हूँ। मैं इनकी जितनी क़द्र करता हूँ उतनी कोई नहीं कर सकता। एक तो आ’लिम और दूसरे फ़क़ीर।
एक बुद्धिमान और अनुभवी वज़ीर भी बादशाह के साथ था। उसने कहा, ऐ दुनिया के मालिक! सच्ची दोस्ती तो यह है कि आप इन दोनों तरह के लोगों का भला करें। आ’लिमों का भला तो उन्हें पैसा देने से होगा ताकि वे बे-फ़िक्री से इ’ल्म हासिल करने में लग जाएँ और फ़क़ीरों का भला उन्हें पैसा न देने में है, ताकि वे ख़ुदा से ही लौ लगाएँ।
'सुन्दर स्त्री को नक़्क़ाशी-दार फ़ीरोज़े की अंगूठी पहनाने की क्या जरूरत है? उसी तरह यदि नेक फ़कीरों के पास भीख के टुकड़े नहीं हैं तो उन्हें क्या ग़म?
'जब तक मुझमें 'और चाहिए' की हवस बाक़ी है, मुझे फ़क़ीर और परहेज़गार कहना ठीक नहीं। फ़क़ीर को न दिरम चाहिए न दीनार। यादि वह दिरम और दीनार तलाश करने लगे तो दूसरा फ़क़ीर तलाश करना चाहिए।'
'जो ख़ुदा से ही लौ लगाए रखता है, वह भीख के टुकड़ों के बिना भी अपनी फ़क़ीरी में मस्त रहता है। ख़ूबसूरत उंगली और कान की लौ, फ़ीरोज़े की अंगूठी और कुंडल के बिना भी अच्छी लगती है।'
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