कहानी-47- फ़क़ीरी गुलिस्तान-ए-सा’दी
एक बादशाह मन ही मन फ़क़ीरों से नफ़रत करता था। एक समझदार फ़क़ीर इस बात को ताड़ गया। उसने कहा, ऐ बादशाह! हम लोग तुझसे अधिक सुखी हैं। तेरे पास बहुत बड़ी सेना ज़रूर है, लेकिन मरेंगे हम और तू दोनों ही। अल्लाह ने चाहा तो क़यामत के दिन हमारी दशा तुझसे अच्छी ही होगी।
दुनिया को जीतने वाला अपने इरादों में कामयाब हो सकता है और फ़क़ीर रोटी को भी मोहताज रह सकता है, लेकिन जब मौत आएगी तो क़ब्र में कफ़न के सिवा किसी के साथ कुछ भी न जाएगा।
'जब एक दिन तेरी बादशाहत ख़त्म ही होगी तो अच्छा है कि तू अभी फ़क़ीरी ले ले।
'देखने में फ़क़ीरी महज़ एक गुदड़ी और मुडा हुआ सिर है किन्तु उसका फल अपने मन को जीतना और शान्ति पाना है।'
वह फ़क़ीर नहीं है जो फ़क़ीर होने का दा’वा तो करे किन्तु लोग उसकी न सुनें तो उनसे लड़ने के लिए खड़ा हो जाए।
'यदि चक्की के पाट के बराबर पत्थर भी पहाड़ से लुढक कर आ जाए तो भी फ़क़ीर अपने रास्ते से नहीं डिगेगा। अगर वह डिगता है तो वह सच्चा फ़क़ीर है ही नहीं।'
फ़क़ीरों में ख़ुदा को याद करना, उसकी ने’मतों का शुक्रिया अदा करना, उसकी ख़िदमत करना, उसी की मर्ज़ी में राज़ी रहना और मुसीबतों को सह लेना, इन सब गुणों का होना ज़रूरी है। जिसमें ये सब गुण हों वही सच्चा फ़क़ीर है। भले ही वह शाही पोशाक पहनता हो। दूसरी ओर, जो दिन-भर मारा-मारा फिरे, नमाज़ न पढे, इच्छाओं का ग़ुलाम हो, लालची हो, दिन-भर काम वासनाओं से घिरा रहे और रात-भर सुस्ती में पड़ा सोता रहे, जो भी हाथ लगे उड़ा ले और जो भी मुंह में आए बक डाले वह ऐ'याश है।
फ़क़ीर नहीं, चाहे वह गुदड़ी ही क्यों न पहनता हो।' 'तेरा दिल तो साफ़ है नहीं और तूने कपड़े फ़क़ीरों के पहन रखे हैं। इस ढोंग से तुझे क्या मिलेगा? दरवाज़े पर तू सतरंगे पर्दे लटका यदि घर के अन्दर बिछाने के लिए टाट के सिवा कुछ भी नहीं है।'
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