कहानी -5-परवरिश- गुलिस्तान-ए-सा’दी
एक शहज़ादे को अपने चाचा से विरासत में बे-हद दौलत मिल गई। फिर क्या था! यह ऐ’याशी में डूब गया। कोई गुनाह ऐसा नहीं था जो उसने नहीं किया। कोई नशा बाक़ी न बचा जो उसने न लिया हो। वह बहुत फ़ुज़ूल-ख़र्ची करने लगा था।
एक बार मैंने उसे समझाया, साहिबज़ादे! आमदनी बहते हुए पानी की तरह है और ख़र्च पनचक्की की तरह। इसलिए ज़ियादा ख़र्च उसी को मुनासिब है जिसकी आमदनी लगातार होती रहती हो।
'जब तेरी आमदनी नहीं है तो ख़र्च थोड़ा कर। मल्लाह एक गीत गाया करते हैं जिसका मतलब है कि यदि पहाड़ों पर बारिश न हो तो दजला नदी एक ही साल में सूख जाए।'
इसलिए तू अ’क़्ल और अदब को काम में ला। खेल-कूद छोड़ दे और ऐ’याशी की ज़िन्दगी से बाज़ आ क्योंकि जब यह दौलत ख़त्म हो जाएगी तो तू मुसीबत उठाएगा और शर्मिंदा होगा।
शहज़ादा संगीत और शराब के नशे में मस्त था। उसने मेरी नसीहत को न सुना। मेरी बात पर ए’तराज करते हुए कहने लगा, मौजूदा आराम को आने वाली परेशानियों से गदला करना अ’क़्लमन्दों का काम नहीं है। दौलतमन्द और ख़ुश-क़िस्मत लोग मुसीबत के डर से मुसीबत क्यों उठाएँ? जा, ऐ दिल को रौशन करने वाले दोस्त! मज़े कर। कल का ग़म आज नहीं खाना चाहिए। मैं भला कंजूसी कैसे कर सकता हूँ! मैं एक ऊँचे स्थान पर बैठा हुआ हूँ। मेरी उदारता की चर्चा सब लोगों की ज़बान पर है। मैंने सबकी परवरिश का वा'दा किया हुआ है।
'जो अपनी उदारता के लिए मशहूर हो गया उसको रुपये की थैली बन्द नहीं रखनी चाहिए।'
'जब तेरा नेक नाम गली-कूचों में फैल गया है तो तू किसी पर दरवाज़ा बन्द नहीं कर सकता।'
मैंने देखा कि यह मेरी नसीहत मानने को हर्गिज़ तैयार नहीं है। मेरी गर्म सांस उसके ठंडे लोहे पर असर नहीं कर रही थी। इसलिए मैंने और कुछ कहना मुनासिब नहीं समझा और उसका साथ छोड़ दिया। मैं अ’क़्लमन्द लोगों के कहे पर अ’मल करने लगा कि जो तेरा फ़र्ज़ हो उसे दूसरों तक पहुँचा दे। फिर भी अगर वह न माने तो तुझ पर कोई इल्ज़ाम नहीं।
'तुझे मा'लूम हो कि लोग तेरी नसीहत नहीं मानेंगे फिर भी तू अपना फ़र्ज़ पूरा कर। जो भी नसीहत या मशवरा तुझे देना चाहिए, दे डाल।
'तू उस मग़रूर को जल्द ही क़ैद-ख़ाने में पाएगा और उसके पैर बेड़ियों में जकड़े हुए देखेगा।'
'तू देखेगा कि वह हाथ मल रहा होगा और अफ़सोस कर रहा होगा कि मैंने अ’क़्लमन्दों की बात न मानी।'
ख़ुलासा यह कि जैसा मुझे डर था वही हुआ। कुछ दिनों के बा’द मैंने उस शहज़ादे की बर्बादी को खुले आ’म देख लिया। वह इतना ग़रीब हो गया था कि थिगली सी-सी पर तन ढकता था और दाने-दाने को मोहताज था । उसे फटे-हाल देखकर मेरा दिल भर आया। ऐसी हालत में उसे कोई ता'ना देना उसके ज़ख़्म को छीलने और उस पर नमक छिड़कने के बराबर होता। ऐसा करना इन्सानियत के ख़िलाफ़ था। इसलिए उससे कुछ न कहते हुए मैंने दिल ही दिल में कहा —
'तुच्छ व्यक्ति अपनी मस्ती में डूबा हुआ मुसीबत के दिन की फ़िक्र नहीं करता।
'बहार के मौसम में पेड़ फल लुटाते हैं, तभी जाड़ों में उन्हें पतझड़ का सामना करना पड़ता है।'
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.