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कहानी -9-बुढ़ापा- गुलिस्तान-ए-सा’दी

सादी शीराज़ी

कहानी -9-बुढ़ापा- गुलिस्तान-ए-सा’दी

सादी शीराज़ी

MORE BYसादी शीराज़ी

    मैने एक ’अक़्ल-मंद आदमी को देखा कि वो किसी पर ’आशिक़ हो गया था और उस का भेद खुल गया था, बहुत ज़ुल्म उठाता था और बे-इंतिहा बर्दाश्त करता था, एक मर्तबा मैंने उस से नर्मी के साथ कहा मुझे यक़ीन है कि तेरी उस महबूब की मोहब्बत में कोई ग़र्ज़-ए-नफ़्सानी नहीं है और मोहब्बत की बुंयाद किसी गुनाह पर क़ायम नहीं है पस बावजूद इस बात के ’आलिमों की ’इज़्ज़त के मुताबिक़ ये बात नहीं होती कि अपने आप को तोहमत लगवाएं और बे-अदबों के ज़ुल्म सहें।

    कहने लगा यार मेरे दामन से ग़ुस्सा का हाथ कोताह कर कि कितनी ही बार इस मस्लेहत में जो तूने सोची है मैंने भी ग़ौर किया है तो मुझे उस के देखने के मुक़ाबिला पर उस के ज़ुल्म पर सब्र करना आसान मा’लूम होता है और ’अक़्ल-मंदों का क़ौल है कि सख़्ती उठाने पर दिल को आमादा करना ज़्यादा आसान है ब-मुक़ाबिला देखने से आँखें बंद करने के।

    जो शख़्स कि दिल किसी महबूब से लगाए हुऐ है

    उस की दाढ़ही दूसरे के हाथ में है

    वो हिरन जिस की गर्दन में बाग-ढोर पड़ी है

    अपने इख़्तियार और इरादे से नहीं चल सकता

    वो शख़्स जिस के ब-ग़ैर गुज़र नहीं हो सकती

    अगर वो कोई ज़ुल्म करे तो उस को बर्दाश्त करना चाहिए

    एक रोज़ मैंने दोस्त से उस के ज़ुल्म से पनाह माँकी

    उस रोज़ से कितनी ही बार तौबा कर चुका हूँ

    दोस्त दोस्त से पनाह नहीं माँता

    मैं उस की मर्ज़ी पर राज़ी हो गया हूँ

    चाहे वो मेहरबानी कर के मुझे अपने पास बुलाए

    और चाहे ग़ुस्सा कर के मुझे भगा दे वो जाने

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