एक शख़्स का दर-ए-महबूब की कुंडी खटखटाना और मैं हूँ 'कहना’ - दफ़्तर-ए-अव्वल
रोचक तथ्य
अनुवाद: मिर्ज़ा निज़ाम शाह लबीब
एक शख़्स दर-ए-महबूब पर आया और कुंडी खटखटाई। महबूब ने पूछा कौन साहिब हैं जवाब दिया कि ''मैं हूँ' महबूब ने कहा, चल दूर हो अभी मुलाक़ात नहीं हो सकती। तुझ जैसी कच्ची चीज़ की इस दस्तर-ख़्वान पर कोई जगह नहीं। हिज्र-ओ-फ़िराक़ की आग के बग़ैर कच्ची जिन्स कैसे पक सकती है जो उस के ज़ाहिर-ओ-बातिन को एक कर दे चूँकि अभी तक तेरी ''तुई' तुझमें से नहीं गई है इसलिए तुझे अभी ग़म की आग में तपना चाहिए।
ये जवाब सुनकर वो बेचारा दर-ए-महबूब से उल्टा फिरा और साल भर तक जुदाई की आग के चरके खाता रहा। जल जला कर ख़ूब पक्का हो गया तो दुबारा वापस आया और महबूब की बारगाह के अतराफ़ सदक़े होने लगा। उसने डरते डरते और बड़े अदब से फिर कुंडी खटखटाई कि कहीं कोई बे-अदबी का लफ़्ज़ मुँह से ना निकल जाए।
महबूब ने अंदर से आवाज़ दी कि दरवाज़े पर कौन है। उसने जवाब में अ’र्ज़ किया। ऐ दिलरुबा तूही तू है।महबूब ने हुक्म दिया कि अब जबकि तू मैं ही है तो अंदर चला आ क्योंकि एक ज़ात में दो मैं की गुंजाइश नहीं। जब एक ही एक हो तो फिर दुई ना सिर्फ़ मिट जाती है बल्कि मैं-पन और तू-पन के दोनों इशारे जाते रहते हैं।
- पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 42)
- रचनाकार :मौलाना रूमी
- प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)
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