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हम-नफ़स इस चमन-ए-दहर में कम आते हैं

मयकश अकबराबादी

हम-नफ़स इस चमन-ए-दहर में कम आते हैं

मयकश अकबराबादी

MORE BYमयकश अकबराबादी

    हम-नफ़स इस चमन-ए-दह्र में कम आते हैं

    बू-ए-गुल से कहो ठह्र अभी हम आते हैं

    ’आशिक़ों की सी तुझे ताब कहाँ है दोस्त

    वर्ना मुझ को बहुत अंदाज़-ए-सितम आते हैं

    कम निगाही भी तिरी मस्लहत-आमेज़ हो

    दिल से नाले मिरे लब तक भी तो कम आते हैं

    तेरी नज़रों में तो कुछ सह्र है ज़ालिम वर्ना

    अपने क़ाबू में भी मुश्किल ही से हम आते हैं

    क्या बरहमन में भी बाक़ी रही बू-ए-वफ़ा

    आज क्यूँ लौट के का'बे में सनम आते हैं

    है ये इंसाँ ही वो क़िब्ला-ए-बर्हक़ कि जिसे

    सज्दा करने के लिए दैर-ओ-हरम आते हैं

    ख़ूब था उन की तवज्जोह का ज़माना 'मैकश'

    अब तो शायद उन्हें हम याद भी कम आते हैं

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    मयकश अकबराबादी

    मयकश अकबराबादी

    स्रोत :
    • पुस्तक : Intikhab-e-Kalaam-e-Maikash (पृष्ठ 210)

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