'अली इमाम-ए-मन-अस्त-ओ-मनम ग़ुलाम-ए-’अली
रोचक तथ्य
آواز : زاہد نازاں قوال۔ کرامات حضرت مولیٰ علی۔
'अली इमाम-ए-मन-अस्त-ओ-मनम ग़ुलाम-ए-’अली
हज़ार जान गिरामी फ़िदा ब-नाम-ए-'अली
बयान करता हूँ हैदर की मैं ’इनायत का
जवाब मिलता नहीं आप की सख़ावत का
ख़ुदा के शेर से साएल ने ये सवाल किया
खिला दो खाना मुझे भूका हूँ कई दिन का
'अली के पास था क्या ख़ुश्क रोटियों के सिवा
बिठा के साथ में साएल से बोले बिस्मिल्लाह
उठा के एक जो टुकड़ा चबाया साएल ने
चबा नहीं तो पशेमाँ हुआ बहुत दिल में
कहा 'अली से कि में इन को खा नहीं सकता
कसी तरह भी ये टुकड़े चबा नहीं सकता
'अली ने घर का हसन के पता दिया उस को
लज़ीज़ खाने वहाँ पर मिलेंगे जा तुझ को
वहाँ से सीधा वो साएल हसन के घर आया
'अली के लाल ने चाहत से उस को बिठला या
बहुत से खाने वहाँ पर जो देखे साएल ने
'अली के बारे में वो सोचने लगा दिल में
खिलाऊँ उन को भी खाना ज़रा सा ले जाके
मिरी तरह से कई दिन के हैं इन्हें फ़ाक़े
ये करके फ़ैसला खाने को वो छुपाने लगा
हसन ने देख के आहिस्तगी से फ़रमाया
बहुत है खाना यहाँ पर तू इत्मीनान से खा
है घर पे जितनी ज़रूरत तू शौक़ से ले जा
सवाल सुनते ही साएल ने ये जवाब दिया
जहाँ में कोई नहीं है मिरा ख़ुदा के सिवा
मिला था मस्जिद-ए-कूफ़ा में इक ग़रीब बशर
जो सूखी रोटियाँ खा-खा के कर रहा है गुज़र
उसी ने आप के घर का पता बताया है
उसी का खाने में मुझ को ख़याल आया है
अगर हो आप की मर्ज़ी तो खाना ले जाऊँ
नहीं तो साथ में जाकर में उस को ले आऊँ
'अली के लाल ने सुन कर कहा ये साएल से
नहीं है तू अभी'' वाक़िफ़ ही मर्द-ए-कामिल से
जो ख़ुश्क रोटियाँ खाते हैं मुर्तज़ा हैं वो
ख़ुदा के शेर हैं दामाद-ए-मुस्तफ़ा हैं वो
इसी तरह वो मुश्किल-कुशाई करते हैं
वो फ़ाक़ा करके ग़रीबों का पेट भरते हैं
ख़ुदा के शेर को भाई न तूने पहचाना
मिले थे जो तुझे मस्जिद में मेरे हैं बाबा
ये राज़ जान के साएल से ज़ब्त हो न सका
रवाँ थे आँख से आँसू ज़बाँ पे था ना'रा
'अली इमाम-ए-मन-अस्त-ओ-मनम ग़ुलाम-ए-’अली
- पुस्तक : Zahid Nazan Qawwal, Part 1 (पृष्ठ 9)
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