निकल गए हैं ख़िरद की हदों से दीवाने
निकल गए हैं ख़िरद की हदों से दीवाने
अब अहल-ए-होश से कह दो न आएँ समझाने
बिसात-ए-बज़्म उलट कर कहाँ गया साक़ी
फ़ज़ा ख़मोश सुबू चुप उदास पैमाने
ये किस के ग़म ने दिलों का क़रार लूट लिया
ये किस की याद में सर फोड़ते हैं दीवाने
भरी बहार का मंज़र अभी निगाह में था
मिरी निगाह को क्या हो गया ख़ुदा जाने
है कौन बर-लब-ए-साहिल कि पेशवाई को
क़दम उठाए ब-अंदाज़-ए-मौज दरिया ने
तमाम शहर में इक दर्द-आश्ना न मिला
बसाए इसलिए अहल-ए-जुनूँ ने वीराने
न अब वो जल्वा-ए-यूसुफ़ न मिस्र का बाज़ार
न अब वो हुस्न के तेवर न अब वो दीवाने
न हर्फ़-ए-हक़ न वो मंसूर की ज़बाँ न वो दार
न कर्बला न वो कटते सरों के नज़्राने
न बाज़ीद न शिबली न अब जुनैद कोई
न अब वो सोज़ न आहें न हा-ओ-हू-ख़ाने
ख़याल-ओ-ख़्वाब की सूरत बिखर गया माज़ी
न सिलसिले न वो क़िस्से न अब वो अफ़्साने
न क़द्र-दाँ न कोई हम-ज़बाँ न इंसाँ-दोस्त
फ़ज़ा-ए-शहर से बेहतर हैं अब तो वीराने
बदल गए हैं तक़ाज़े मिज़ाज वक़्त के साथ
न वो शराब न साक़ी न अब वो मय-ख़ाने
तमाम बंद जुनूँ तोड़ भी गया लेकिन
अना के जाल में जकड़े हुए हैं फ़रज़ाने
ये इंक़लाब कहाँ आसमाँ ने देखा था
उलझ रहे हैं ग़म-ए-ज़िंदगी से दीवाने
हर एक अपने ही सूद-ओ-ज़ियाँ की फ़िक्र में है
कोई तो हो जो मिरे दिल का दर्द पहचाने
तिरा वुजूद ग़नीमत है फिर भी ऐ साक़ी
कि हो गए हैं फिर आबाद आज मय-ख़ाने
वही हुजूम वही रौनक़ें वही मय-कश
वही नशा वही मस्ती वही तरब-ख़ाने
जबीं को दर पे तिरे रख दिया यही कह कर
ये जाने और तिरा संग-ए-आस्ताँ जाने
उठेंगे पी के तिरी मय-नवाज़ आँखों से
ये तय किए हुए बैठे हैं आज दीवाने
है तेरी ज़ात वो इक शम्-ए'-अंजुमन-अफ़रोज़
कि जिस की लौ पे लपकते रहेंगे परवाने
कोई निशात का सामाँ कोई तरब की सबील
लगी है फिर सर-ए-मय-ख़ाना बदलियाँ छाने
तू बोलता है तो चलती है नब्ज़-ए-मय-ख़ाना
तू देखता है तो करते हैं रक़्स परवाने
ये मस्तियाँ नहीं जाम-ओ-सुबू के हिस्से में
तेरी निगाह से पत्ते हैं तेरे दीवाने
'नसीर' अश्क तो पलकों पे सब ने देख लिए
गुज़र रही है जो दिल पर वो कोई क्या जाने
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