उल्फ़त में बराबर है वफ़ा हो कि जफ़ा हो
उल्फ़त में बराबर है वफ़ा हो कि जफ़ा हो
हर बात में लज़्ज़त है अगर दिल में मज़ा हो
हम तुम हों शब-ए-वस्ल अकेले तो मज़ा हो
हम से हो अदब दूर हया तुम से जुदा हो
आए जो मिरी लाश पे वो तंज़ से बोले
अब मैं हूँ ख़फ़ा तुम से कि तुम मुझ से ख़फ़ा हो
जो उन से अदा होती है कहता है मिरा दिल
इस पर्दे में अल्लाह करे मेरी क़ज़ा हो
मेहमान-ए-चमन आज है मेरा गुल-ए-नाज़ुक
कह दो कि दबे पाँव रवाँ बाद-ए-सबा हो
घबरा के वो बोले जो सुना शोर-ए-क़ियामत
देखो मिरे आ'शिक़ का जनाज़ा न उठा हो
आए जो दम-ए-नज़अ' कहा हँस के सिधारो
परियों को तो चाहा बहुत अब हूरों को चाहो
क्या शौक़ था मरक़द से क़ियामत में पहुँचना
कहता हुआ अब वा'दा-ए-दीदार-ए-वफ़ा हो
झुँझला के सज़ा दें वो मुझे हाथ से अपने
ऐसी कोई ऐ दिल जो ख़ता हो तो मज़ा हो
हर रँग में है यार नया रँग तुम्हारा
बे-पर्दा जो शोख़ी हो तो दर-पर्दा हया हो
वहशत को मिरी साथ मिरे दफ़्न न करना
घर ख़ाना-ख़राबी का मिरे घर से जुदा हो
तू सूरत-ए-दरिया है हबाब अहल-ए-जहाँ हैं
तेरा है तिरी राह में सर जिस का फ़िदा हो
हँस हँस के छुरी फेर गले पर मिरे क़ातिल
आख़िर की तड़प है ये कुछ इस में तो मज़ा हो
नैरंगी-ए-हुस्न उन की ये कहती है शब-ए-वस्ल
चितवन में शरारत हो तो आँखों में हया हो
रहम उस दिल-ए-पुर-दाग़ पर ऐ उल्फ़त-ए-मिज़्गाँ
काँटों में न खींच उस को जो फूलों में तुला हो
इस वहम से गुंधवाने में चोटी की वो झिझके
मश्शाता का बहरूप न आ'शिक़ ने भरा हो
उठ जाते हैं महफ़िल से जो हो जाती है गुल शम्अ'
डरते हैं कि मुझ से न मिली बाद-ए-सबा हो
क्या रब्त है सीने से खिंचे तीर तो पैकाँ
नाविक से जुदा हो मिरे दिल से न जुदा हो
लाया मह-ए-नौ बद्र का आईना बग़ल में
इतना भी न अपना कोई मुश्ताक़-ए-लक़ा हो
क्या हाथ में दरकार 'अमीर' उन को है मेहंदी
छू लें गुल-ए-आ'रिज़ तो वही रंग-ए-हिना हो
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