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राहतुल क़ुलूब, दूसरी मज्लिस :-

क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी

राहतुल क़ुलूब, दूसरी मज्लिस :-

क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी

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    रोचक तथ्य

    मल्फ़ूज़ : क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी जामे : बाबा फ़रीद

    हफ़्ता के रोज़ माह-ए-शव्वाल 584 हिज्री को पा-बोसी का शरफ़ हासिल हुआ।

    क़ाज़ी हमीदुद्दीन नागौरी,मौलाना अ’लाउद्दीन किरमानी और मौलाना शमसुद्दीन के अ’लावा और साहिब भी ख़िदमत में हाज़िर थे।सुलूक और अहल-ए-सुलूक के बारे में गुफ़्तुगू शुरू हुई।आपने ज़बान-ए- मुबारक से फ़रमाया कि राह-ए-सुलूक के सालिक वो हैं जो सर से पांव तक दरिया-ए-मोहब्बत में ग़र्क़ हैं।कोई लहज़ा और घड़ी ऐसी नहीं गुज़रती कि उन पर इश्क़ का मेंह ना बरसे।

    इस के बा’द फ़रमाया कि आरिफ़ वो शख़्स है कि हर लहज़ा उस में आ’लम-ए-असरार से हज़ारहा असरार पैदा हों और आ’लम-ए-सुक्र में रहे और अगर इस हालत में अठारह हज़ार आ’लम उस के सीने में डाले जाएँ तो भी उसे ख़बर ना हो।

    इस के बा’द इसी मौक़ा’ पर फ़रमाया कि एक मर्तबा समरक़ंद में मैं ने एक दरवेश को देखा जो आ’लम-ए-तहय्युर में था।मैं ने लोगों से दरयाफ़्त किया कि कब से ये बुज़ुर्ग आ’लम-ए-तहय्युर में हैं?लोगों ने कहा कि बीस साल से।अल-ग़र्ज़ मैं कुछ मुद्दत उनकी ख़िदमत में रहा। एक दफ़ा’ उसे आ’लम-ए-सह्व में पाकर उस से पूछा कि जिस वक़्त आप आ’लम-ए-तहय्युर में होते हैं तो क्या तुम्हें आमद-ओ-रफ़्त की ख़बर भी होती है या नहीं?दरवेश ने कहा कि यारो?जिस वक़्त दरवेश दरिया-ए-मोहब्बत में ग़र्क़ होता है तो जो कुछ तजल्लियात के असरार उस पर नाज़िल होते हैं उसे अठारह हज़ार आ’लम की भी ख़बर नहीं होती।पस ये इश्क़-बाज़ी की राह है जिसने इस में क़दम रखा वो जान सलामत ना ले गया।

    इसी मौक़ा पर आपने फ़रमाया कि जब यहया अलैहिस-सलाम के गले पर छुरी फेरी गई तो उन्होंने चाहा कि फ़रियाद करें।हुक्म हुआ कि यहया!गर तूने दम मारा तो याद रख तेरा नाम अपने मुहिब्बों से काट डालूँगा।फिर ये हिकायत फ़रमाई कि जब ज़करिया अलैहिस-सलाम के सर-ए-मुबारक पर आरा चलने लगा तो उन्होंने चाहा कि फ़रियाद करें लेकिन जिबरईल अलैहिस-सलाम नाज़िल हुए और कहा जनाब-ए-इलाही से ये हुक्म हुआ है कि अगर तू ने दम मारा तो तेरा नाम पैग़म्बरों के दफ़्तर से मिटा दिया जाएगा।

    उसी वक़्त ख़्वाजा क़ुतुबुल-इस्लाम आब-दीदा हुए और फ़रमाया कि जो शख़्स मोहब्बत का दा’वा करे और मा’सियत के वक़्त फ़रियाद करे वो दर-हक़ीक़त सच्चा दोस्त नहीं होता बल्कि झूटा है इस वास्ते कि दोस्ती इस बात का नाम है कि जो कुछ दोस्त की तरफ़ से आए उस पर राज़ी रहे और लाखों शुक्र बजा लाए और दूसरे ये कि शायद इसी बहाने से याद करे।

    इस के बा’द इसी मौक़ा पर फ़रमाया कि हज़रत राबिआ’ बस्री का ये तरीक़ा था कि जब आप पर कोई बला नाज़िल होती तो आप ख़ुशी मनातीं और कहतीं कि आज इस बुढ़िया को दोस्त ने याद किया और जिस रोज़ मुसीबत नाज़िल ना होती तो आप रो कर कहतीं कि आज क्या हो गया और मुझसे क्या ख़ता सर-ज़द हुई कि दोस्त ने इस बुढ़िया को याद नहीं किया।

    इस के बा’द फ़रमाया कि मैं ने शैख़ुल-इस्लाम शैख़ मुईनुद्दीन की ज़बानी सुना है कि राह-ए-सुलूक में ये बात है कि जो शख़्स मोहब्बत करे और मोहब्बत का दा’वा करे वो दोस्त की मुसीबत को ख़्वाहिश से चाहता है क्योंकि अहल-ए-मारिफ़त के नज़दीक दोस्त की मुसीबत दोस्त की रज़ा है।

    फिर फ़रमाया कि जिस रोज़ दोस्त की मुसीबत हम पर नाज़िल नहीं होती है हम को मा’लूम हो जाता है कि आज ने’मत हमसे छिन गई इस वास्ते कि राह-ए-सुलूक में दोस्त की रहमत दोस्त की मुसीबत होती है।

    मरदान-ए-ग़ैब के बारे में गुफ़्तुगू शुरू हुई।आपने फ़रमाया कि जिस आदमी से मरदान-ए-ग़ैब की मुलाक़ात होती है पहले वो उसे आवाज़ देते हैं।जब वो इस में पक्का हो जाता है तो फिर अपने तईं उस पर ज़ाहिर करते हैं फिर उसे मज्लिस से बुला लेते हैं।

    फ़रमाया कि इस दुआ’-गो का एक-बार शैख़ संजरी जो हम ख़िर्क़ा भी था वो अज़-हद मश्ग़ूल-ए-हक़ था।चुनांचे उस से मुलाक़ात भी करते थे।एक दिन वो यारों के हमराह मज्लिस में बैठा हुआ था और मैं भी उस के पास बैठा हुआ था।उसने एक शैख़ के आने पर लब्बैक कहा।उन्होंने कहा आते हो या हम चले जाएँ।जूंही कि उसने ये बात सुनी मज्लिस से उठ बैठा और आवाज़ की तरफ़ चला गया हम से दूर यहाँ तक कि नज़र से ग़ायब हो गया।मुझे मा’लूम ना हुआ कि वो कहाँ गया और उसे कहाँ ले गए।

    ख़्वाजा क़ुतुबुल-इस्लाम अदामाल्लाहु तक़वाहु ने ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाया कि अगर चलने वाला एक ख़ास सम्त में चलता है और उस का यक़ीन-ए-कामिल है और कमालियत की उम्मीद रखता है तो यक़ीनन वो कमालियत को पहुंच जाता है।

    इस के बा’द इसी मौक़ा पर फ़रमाया कि एक मर्तबा मैं और क़ाज़ी हमीदुद्दीन नागौरी ख़ाना-ए- का’बा का तवाफ़ कर रहे थे।वहाँ पर शैख़ बुरहानुद्दीन नाम एक बुज़ुर्ग जो ख़्वाजा अबू-बकर शिबली का ग़ुलाम था और अज़-हद बुज़ुर्ग था,ख़ाना-ए-का’बा का तवाफ़ करने आया था।हम ने भी उस के पीछे उसी तरह तवाफ़ करना शुरू किया कि जहाँ वो क़दम रखता हम भी वहीं रखते चूँकि वो पीर-ए-रौशन ज़मीर था समझ गया।उसने कहा मेरी ज़ाहिरी मुताबअ’त क्यों करते हो? अगर करनी है तो बातिनी करो और जो हमारा अ’मल है उस पर कारबन्द रहो।हम दोनों ने उस से पूछा कि आप कौन सा अ’मल करते हैं।शैख़-ए-मज़कूर ने कहा कि हम एक दिन में बीस हज़ार मर्तबा क़ुरआन शरीफ़ ख़त्म करते हैं।हम दोनों ने इस बात से बड़ा तअ’ज्जुब किया कि ये बुजु़र्गवार क्या कहता है।हमने ख़्याल किया कि उसने शायद हर सूरत का कोई ख़ास हिस्सा ज़बानी याद किया होगा।इतने में उसने सर उठाकर मुझे कहा ख़बरदार!ऐसा नहीं बल्कि हम हर्फ़ ब-हर्फ़ पढ़ते हैं।मौलाना अ’लाउद्दीन किरमानी भी हाज़िर-ए-मज्लिस थे।उन्होंने फ़रमाया कि ये करामत है।

    ख़्वाजा क़ुतुबुल-इस्लाम अदामल्लाहु तक़वाहु ने फ़रमाया कि हाँ!जो बात अक़्ल में ना सके वही करामत होती है।इस के बा’द ख़्वाजा ने आब-दीदा हो कर फ़रमाया कि जो शख़्स हक़ीक़त के मर्तबे पर पहुंचा है अपनी नेक-आ’माली के बाइस पहुंचा है।अगरचे फ़ैज़ सब पर होता है लेकिन कोशिश लाज़िम है।

    इस के बा’द मज्लिस में आने और पीर की ख़िदमत में बा-अदब बैठने के बारे में गुफ़्तुगू शुरू हुई।ख़्वाजा क़ुतुबुल-इस्लाम अदामल्लाहु तक़वाहु ने ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाया कि जब कोई शख़्स मज्लिस में आए तो जहाँ ख़ाली जगह देखे वहीं बैठ जाए क्योंकि आइन्दा जगह भी उस की वही है।इस के बा’द फ़रमाया कि एक मर्तबा दुआ’’-गो अजमेर में शैख़ मुईनुद्दीन हसन संजरी की ख़िदमत में मौलाना सदरुद्दीन की मज्लिस में बैठा हुआ था।मौलाना सदरुद्दीन ने फ़रमाया कि एक मर्तबा रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम एक मक़ाम पर बैठे हुए थे और असहाब गिर्दागिर्द बैठे हुए थे कि तीन आदमी बाहर से आए।एक ने इस हल्क़ा में जगह पाई वहीं बैठ गया।

    दूसरा जिसने इस हल्क़ा से बाहर जगह देखी वो वहीं बैठ गया और तीसरे ने जगह ना पाई तो वापस चला गया।उसी वक़्त जिबरईल अलैहिस-सलाम नाज़िल हुए और अ’र्ज़ क्या या रसूलल्लाह! अल्लाह तआ’ला फ़रमाते हैं कि जिस शख़्स ने हल्क़ा में जगह पाई है उस को हमने अपनी पनाह में ले लिया और जो तबक़े से पीछे बैठा है हम उस से बहुत शर्मिंदा हैं और क़ियामत के दिन हम उसे रुस्वा नहीं करेंगे और तीसरा जो चला गया है वो हमारी रहमत से दूर हो गया और महरूम रहा।क़ाज़ी हमीदुद्दीन नागौरी ने अ’र्ज़ किया जो शख़्स चला गया अगर वो ना चला जाता तो क्या करता।ख़्वाजा क़ुतुबुल-इस्लाम ने फ़रमाया कि ये इस बात की दलील है कि इंसान मज्लिस में जहाँ जगह पाए बैठ जाए और उसी जगह बैठा रहे क्योंकि आइन्दा जगह भी वही होती है या हल्क़ा के पीछे बैठ जाए लेकिन हर हाल में दायरा के दरमियान ना बैठे इस वास्ते कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से हदीस है कि अबू-लैस समरक़न्दी की तंबीह में लिखी गई है कि जो शख़्स मज्लिस के दरमियान में बैठता है वो ला’नती है।

    फिर पीर की दुआ’’ और बद-दुआ’’ के बारे में बात शुरू हुई। आपने ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाया कि दुआ’’ दो क़िस्म की होती है।एक नेक और दूसरी बद।किसी के हक़ में बद-दुआ’’ नहीं करनी चाहिए। फ़रमाया एक मर्तबा शैख़ मुईनुद्दीन हसन संजरी की ख़िदमत में हाज़िर थे।उन्होंने ये हिकायत बयान फ़रमाई कि एक रोज़ मैं अपने पीर शैख़ उसमान हारूनी के सामने खड़ा था कि शैख़ बुरहानुद्दीन नाम एक दरवेश जो शैख़ मुईनुद्दीन हसन संजरी का हम-ख़िर्क़ा था,अपने हम-साया से तंग हो कर उस का गिला करता हुआ शैख़ की ख़िदमत में हाज़िर हुआ।शैख़ ने फ़रमाया बैठ जा।वो बैठ गया।फिर शैख़ ने पूछा कि मैं तुझे कुछ मलूल सा देखता हूँ।उसने सर झुका कर अ’र्ज़ किया कि मेरा हम-साया है,मैं उस से हमेशा तंग रहता हूँ।इस वास्ते कि उसने अपना मकान बुलंद बनवाया है और हर बार छत पर चढ़ता है और इस दुआ’-गो के घर की बे-सतरी होती है।जूँही उसने ये अ’र्ज़ किया फ़ौरन शैख़ उसमान ने फ़रमाया कि क्या उसे मा’लूम है कि तुम हमसे तअ’ल्लुक़ रखते हो?उसने अ’र्ज़ किया कि हाँ!ख़्वाजा ने दुआ’’ की कि क्या वो छत से नहीं गिरता और उस की गर्दन नहीं टूटती।वो फ़क़ीर आदाब बजा ला कर घर वापस गया।अभी आधा रास्ता गया होगा कि मुहल्ले वालों का शोर सुना कि दरवेश का फ़ुलाँ हम-साया छत से गिर पड़ा है और उस की गर्दन टूट गई है।

    फिर उसी मौक़ा पर आपने फ़रमाया कि एक मर्तबा मैं अजमेर में शैख़ मुईनुद्दीन की ख़िदमत में बैठा हुआ था और उन दिनों पिथौरा (पृथ्वी राज) ज़िंदा था और कहा करता था कि क्या ही अच्छा हो जो ये फ़क़ीर यहाँ से चला जाए।ये बात वो हर शख़्स को कहा करता था।होते होते ये ख़बर शैख़ मुईनुद्दीन ने भी सुन ली और दरवेश भी उस वक़्त मौजूद थे।आप उस वक़्त हालत-ए-सुक्र में थे।फ़ौरन आपने मुराक़बा किया और मुराक़बा में ही आपकी ज़बान-ए-मुबारक से ये कलिमात निकले कि हम ने राय पिथौरा को ज़िंदा ही मुसलमान के हवाले किया।चुनांचे थोड़े अ’र्से बा’द सुल्तान शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ौरी का लश्कर चढ़ आया और शहर को लूट मार करने के बा’द पिथौरा को ज़िंदा पकड़ कर ले गया।इस से मा’लूम होता है कि दरवेश एक प्याले में आग रखते हैं या’नी नुक़्सान भी पहुंचा सकते हैं और दूसरे में पानी या’नी नफ़ा’ पहुंचा सकते हैं। ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन अभी यही फ़वाइद बयान कर रहे थे कि मलिक इख़्तियारउद्दीन उस क़स्बे का मालिक आया और आदाब बजा ला कर बैठ गया और कुछ नक़दी ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन की नज़र की लेकिन शैख़ ने हाज़िरीन की तरफ़ देख कर फ़रमाया: हमारे ख़्वाजगान की रस्म है कि हम किसी की नज़र क़ुबूल तो कर लेते हैं लेकिन ये नक़दी औरों के लिए है।अल-ग़र्ज़ उस बोरीए को जिस पर कि आप बैठे हुए थे उठाया और इख़्तियारउद्दीन और हाज़िरीन को दिखाया।जब उन्होंने निगाह की तो क्या देखते हैं कि बोरीए के नीचे सोने की थैलियों की नहर जारी है।शैख़ ने फ़रमाया कि इख़्तियारुद्दीन!जिस शख़्स को इलाही ख़ज़ाना से इस क़दर माल-ओ-ज़र दे वो इख़्तियारुद्दीन का ज़र-ओ-माल किस तरह क़ुबूल कर सकता है।ऐ शम्सुद्दीन!जा ये उसी को दे दे और कह दे कि ख़बरदार!दुबारा दरवेशों के साथ ऐसी गुस्ताख़ी से पेश ना आना नहीं तो नुक़्सान उठाएगा।

    फिर फ़रमाया कि एक दफ़ा’ शैख़ मुईनुद्दीन और शैख़ औहद किरमानी और शैख़ शहाबुद्दीन सुह्रवर्दी और दुआ’’-गो एक ही जगह बैठे हुए थे कि अंबिया का तज़्किरा शुरू हुआ।उस वक़्त आपने ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाया कि सुल्तान शम्सुद्दीन ख़ुदा उस की दलील को रौशन करे,अभी बारह साल का था और हाथ में पियाला लिए जा रहा था।बुज़ुर्गों की निगाह जब उस पर पड़ी तो फ़ौरन शैख़ मुईनुद्दीन की ज़बान-ए-मुबारक से निकला कि ये लड़का जब तक दिल्ली का बादशाह ना होगा ख़ुदा उसे दुनिया से ना उठाएगा।फिर आपने फ़रमाया कि नेक दुआ’’ बहुत अच्छी होती है ख़ुसूसन जो बुज़ुर्गों की ज़बान से निकले।फिर बैअ’त के बारे में गुफ़्तुगू शुरू हुई। आपने ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाया कि बैअ’त दुबारा हो सकती है इस वास्ते कि अगर कोई बैअ’त से फिर जाए या उस में शक करे तो अज़ सर-ए-नौ बैअ’त कर लेनी जाएज़ है।इस के बा'द फ़रमाया कि शैख़ुल-इस्लाम बुरहानुल-मिल्लत-वद्दीन के रौज़ा-ए-मुबारक में मैं ने लिखा हुआ देखा है कि ख़्वाजा हसन बस्री की रिवायत के मुताबिक़ जब हज़रत रिसालत पनाह ने मक्का फ़त्ह करने से पेशतर जब मक्के का इरादा किया तो उसमान ज़ुन्नूरैन और हज़रत अ’ली को भेजा कि मक्के वालों की रिसालत करो।इसी अस्ना में दुश्मनों ने हज़रत रिसालत पनाह की ख़िदमत में अ’र्ज़ किया कि दुश्मन ने उसमान ज़ुन्नूरैन और हज़रत अ’ली को क़त्ल कर दिया है।जब रसूलुल्लाह ने ये सुना तो सारे असहाब को बुलाकर फ़रमाया कि आओ!अज़ सर-ए-नौ बैअ’त करें और मक्का जाएँ और हम सब यकसाँ लड़ाई करें।यारों ने हुक्म के मुताबिक़ नए सिरे से बैअ’त की और उस वक़्त आप दरख़्त के तले तकिया लगाकर बैठे हुए थे।इस बैअ’त को बैअ’त-ए-रिज़वान कहते हैं।उनमें एक सहाबी था जिसे इब्न-ए-रुकुअ’ कहते हैं वो भी रसूलुल्लाह की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और अ’र्ज़ किया कि मुझे भी अज़ सर-ए-नौ बैअ’त करो।पैग़मबर ने फ़रमाया कि तू ने इस से पहले बैअ’त की हुई है।उसने अ’र्ज़ किया या हज़रत!चूँकि उस वक़्त हम सब यकसाँ हुर्मत से जाते हैं इसलिए वाजिब है कि आप नए सिरे से हमें बैअ’त करें। पैग़मबर ने उसे बैअ’त से मुशर्रफ़ फ़रमाया।फिर ख़्वाजा क़ुतुबुल-इस्लाम ने ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाया कि यही सबब है जो अज़ सर-ए-नौ बैअ’त कर सकते हैं।दुआ’-गो ने इल्तिमास किया कि अगर पीर ना हो तो फिर क्या करे।आपने फ़रमाया कि अपने शैख़ का जामा ही सामने रख ले और बैअ’त कर ले।फिर फ़रमाया कि कोई तअ’ज्जुब नहीं कि शैख़ मुईनुद्दीन भी ऐसा ही करते होंगे और इसी सबब से ये दुआ’’-गो भी इसी तरह बैअ’त करता है।

    इस के बा’द मुरीदों के हुस्न-ए-एतिक़ाद के बारे में ज़िक्र शुरू हुआ।आपने ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाया कि एक मर्तबा एक दरवेश को बग़दाद में किसी क़ुसूर के बदले पकड़ा और क़त्लगाह में खड़ा कर दिया गया जब जल्लाद मक़्तल की तरफ़ आया और चाहा कि उस पर वार करे,उस दरवेश की नज़र पीर की क़ब्र पर पड़ी।फ़ौरन का’बा से मुँह फेर कर अपने शैख़ की क़ब्र की जानिब रुख़ किया।जल्लाद ने उस से पूछा कि तू ने क़िबला से मुँह क्यों फेरा?उसने कहा कि मेरा मुँह अपने क़िबला की तरफ़ है तू अपना काम कर।दरवेश और जल्लाद में अभी यही गुफ़्तुगू हो रही थी कि सरदार का हुक्म आया कि इस दरवेश को छोड़ दो।ख़्वाजा क़ुतुबुल-इस्लाम ने आब-दीदा हो कर फ़रमाया सच्चा अ’क़ीदा ऐसी चीज़ है कि उसने दरवेश को क़त्ल होने से बचा लिया।इसी मौक़ा पर आपने फ़रमाया कि एक मर्तबा ख़्वाजा मुईनुद्दीन अपने साथियों के साथ बैठे हुए थे और सुलूक की बातें हो रही थीं।जब आप दाईं तरफ़ देखते उठ खड़े होते।तमाम लोग ये देखकर हैरान हुए कि शैख़-साहब किस की ता’ज़ीम के लिए खड़े होते हैं।चुनांचे इस तरह उन्होंने कई मर्तबा क़ियाम किया।अल-ग़र्ज़ जब सब दोस्त और लोग वहाँ से चले गए तो एक दोस्त जो शैख़ का मंज़ूर-ए-नज़र था,इसलिए मौक़ा पा कर अ’र्ज़ किया कि आप जिस वक़्त तरग़ीब देते थे तो हर मर्तबा आप क़ियाम क्यों करते थे और किस की ता’ज़ीम के लिए ये क़ियाम किया था।शैख़ मुईनुद्दीन रहमतुल्लाहि अलैहि ने फ़रमाया कि इस तरफ़ मेरे पीर या’नी उसमान हारून रहमतुल्लाहि अलैहि की क़ब्र है।पस जब अपने पीर की क़ब्र की तरफ़ देखता था तो ता’ज़ीम के लिए उठता था।पस मैं अपने पीर के रौज़ा के लिए क़ियाम करता था।फिर फ़रमाया कि मुरीद को अपने पीर की मौजूदगी और ग़ैर-मौजूदगी में यकसाँ ख़िदमत करनी चाहिए चुनांचे जिस तरह उस की ज़िंदगी में ख़िदमत करता था,उसी तरह उस के मरने के बा’द भी उस के लिए लाज़िम है बल्कि मुनासिब है कि उस से भी ज़्यादा करे।

    फिर समाअ’त के बारे में गुफ़्तुगू शुरू हुई।आपने ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाया कि दुआ’-गो के नज़दीक समाअ’ में कुछ ऐसा ज़ौक़ है कि मुझे किसी चीज़ में लुत्फ़ नहीं आता जितना कि समाअ’ में आता है।फिर फ़रमाया कि साहिब-ए-तरीक़त और मुश्ताक़-ए-हक़ीक़त लोगों को समाअ’ में इस क़िस्म का ज़ौक़ हासिल होता है जैसा कि बदन में आग लग उठती है।अगर ये ना होता तो लिक़ा कहाँ होता और लिक़ा का लुत्फ़ ही क्या होता। इस के बा’द फ़रमाया कि मैं और क़ाज़ी हमीदुद्दीन नागौरी एक मर्तबा शैख़ अ’ली संजरी की ख़ानक़ाह में थे।वहाँ समाअ’ हो रहा था और क़व्वाल ये क़सीदा गा रहे थे।

    कुश्तगान-ए-ख़ंजर-ए-तस्लीम रा

    हर ज़माँ अज़ ग़ैब जाने दीगर अस्त

    तर्जुमा: ख़ंजर-ए-तस्लीम के मक़्तूलों को हर वक़्त ग़ैब से एक और ही जान मिलती है।

    हम दोनों में इस बैत ने कुछ ऐसा असर किया कि हम तीन दिन रात इसी बैत में मदहोश रहे।जब हम घर आए फिर भी क़व्वालों से यही सुनते।चुनांचे तीन दिन रात और भी हम इस बैत की हालत में रहे कि हमें अपने आपकी कुछ सुध-बुध ना रही थी।इस तरह सात दिन और सात रातें हमने इसी बैत में गुज़ार दीं और हर मर्तबा जब गाने वाले ये गाते तो हम पर एक ख़ास क़िस्म की हालत तारी होती जिसका बयान नहीं कर सकते।फिर आपने ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाया कि एक दफ़ा’ का ज़िक्र है कि मैं और क़ाज़ी हमीदुद्दीन नागौरी एक शहर में गए।वहाँ क्या देखते हैं कि बारह आदमियों की एक जमाअ’त आ’लम-ए-हैरानी में खड़ी हुई है और उनकी आँखें आसमान की तरफ़ लगी हुई हैं।वो दिन रात मुतहय्यर रहते हैं लेकिन जब नमाज़ का वक़्त होता तो नमाज़ अदा कर के आ’लम-ए-हैरानी में मह्व हो जाते।फिर ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन ने ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाया कि हाँ!औलियाउल्लाह का यही ख़ास्सा होता है जो उन में है,अगरचे वो मुतहय्यर थे।वो नमाज़ का वक़्त फ़ौत ना होने देते थे।इसी मौक़ा’ पर आपने फ़रमाया कि एक मर्तबा शैख़ मुईनुद्दीन हसन संजरी के हमराह ख़ाना-ए-का’बा की ज़ियारत के लिए मैं सफ़र कर रहा था।चलते चलते हम एक शहर में पहुंचे।वहाँ एक बुज़ुर्ग को देखा जो एक कुटिया में मो’तकिफ़ है और ग़ार के अंदर खड़ा हो कर दोनों आँखें आसमान की तरफ़ लगाए है जैसा कि कोई सूखा हुआ धाँच खड़ा किया हुआ होता है।ये देखकर शैख़ मुईनुद्दीन हसन संजरी ने मेरी तरफ़ देख कर फ़रमाया कि अगर तू कहे तो चंद रोज़ यहाँ ठहर जाएँ?मैं ने अ’र्ज़ किया ब-सर-ओ-चश्म!ग़रज़-कि हम तक़रीबन एक महीना उस के पास रहे।इस अ’र्से में एक रोज़ वो बुज़ुर्ग आ’लम-ए-तहय्युर से होश में आया।हमने उठकर सलाम अ’लैक किया।उसने सलाम का जवाब दिया और फ़रमाया अ’ज़ीज़ो! तुम ने तकलीफ़ उठाई।ख़ुदा तुम्हें इस का अज्र देगा।इस वास्ते कि बुज़ुर्गों का क़ौल है कि जो शख़्स दरवेशों की ख़िदमत करता है वो किसी मर्तबे पर पहुंच जाता है।फिर फ़रमाया कि बैठ जाओ!हम बैठ गए तो हिकायत यूं बयान करनी शुरू की कि मैं शैख़ मुहम्मद असलम तूसी के फ़रज़न्दों में से हूँ और क़रीबन तीस साल से आ’लम-ए-तहय्युर में मुसतग़रक़ हूँ।मुझे रात-दिन की कोई तमीज़ नहीं।आज अल्लाह तआ’ला तुम्हारी वजह से मुझे सह्व या’नी होश में लाया।अ’ज़ीज़ो!तुम वापस चले जाओ!ख़ुदा तुम्हें इस तकलीफ़ का अज्र देगा लेकिन एक बात फ़क़ीर की याद रखना कि जब तुम ने राह-ए-तरीक़त में क़दम रखा है तो दुनिया और नफ़्सानी ख़्वाहिश की तरफ़ माइल ना होना और ख़िल्क़त से किनारा-कशी करना और जो तुम्हें नज़्र नियाज़ मिले,उसे अपने पास जम्अ’ ना करना।अगर ऐसा करोगे तो ख़ता खाओगे।जब उस बुज़ुर्ग ने नसीहत ख़त्म की तो फिर आ’लम-ए-तहय्युर में मह्व हो गया और हम वहाँ से वापस चले आए।जब ख़्वाजा क़ुतुबुल-इस्लाम ने इन फ़वाइद को ख़त्म किया तो आ’लम-ए-सुक्र में मह्व हो गए और दुआ’-गो वापस चला आया।एक वीराना में घर बना हुआ था वहाँ कर याद-ए-इलाही में मशग़ूल हुआ।अलहम्दुलिल्लाहि अला ज़ालिक।

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