अब जुनून-ए-'इश्क़-ए-अहमद फिर दोबारा हो गया
अब जुनून-ए-'इश्क़-ए-अहमद फिर दोबारा हो गया
अब्दुल ग़फ़्फ़ार आरवी
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अब जुनून-ए-'इश्क़-ए-अहमद फिर दोबारा हो गया
आज से सहरा-ए-तैबा गर हमारा हो गया
इस क़दर भाता है हज़रत आप का सहरा मुझे
ख़ार आँखों में मिरी गुलज़ार सारा हो गया
देख कर हालत को मेरी अब मुझे कहते हैं लोग
अपने बेगाना से सब से ये किनारा हो गया
रात को सोता हूँ मुँह कर के मदीना की तरफ़
जब से दीदार-ए-मोहम्मद का नज़ारा हो गया
बाग़-ए-रिज़वाँ की हवस मुझ को नहीं है वाइ'ज़
कूचा-ए-अहमद में अब मेरा गुज़ारा हो गया
जा के यूँ रौज़ा-ए-मोबारक पर कहूँगा या नबी
फ़िक्र से आफ़त से ग़म से मैं किनारा हो गया
देखिए मद्ह-ए-नबी में लिख रहा हूँ ये ग़ज़ल
बख़्त का मेरे हर इक ज़र्रा सितारा हो गया
रू-ए-अहमद के तसव्वुर में यही कहते हैं हम
महव-ए-दीदार-ए-मोहम्मद दिल हमारा हो गया
चाँद अदना मो'जिज़ा है आप का मेरे नबी
कैसा अंगुश्त-ए-शहादत से दो पारा हो गया
- पुस्तक : Gulistan-e-Rahmat (पृष्ठ 13)
- संस्करण : First
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