क्या ग़म मेरी मदद पे अगर ग़ौस-ए-पाक हैं
रोचक तथ्य
منقبت در شان غوث پاک شیخ عبدالقادر جیلانی (بغداد-عراق)
क्या ग़म मेरी मदद पे अगर ग़ौस-ए-पाक हैं
अल्लाह भी उधर है जिधर ग़ौस-ए-पाक हैं
हामी मिरे शफ़ीक़ मिरे दादरस मिरे
हैं उस तरफ़ रसूल जिधर ग़ौस-ए-पाक हैं
इस नाम से कलेजे में ठंडक न क्यूँ पड़े
मरहम बरा-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर ग़ौस-ए-पाक हैं
खटका नहीं है कुछ मुझे आफ़ात-ए-दहर का
आए कोई बला तो सिपर ग़ौस-ए-पाक हैं
कर देंगे डूबती हुई कश्ती को मेरी पार
बाँधे हुए मदद पे कमर ग़ौस-ए-पाक हैं
शम्स-ओ-क़मर समाते नहीं हैं निगाह में
आँखों को जैसे मद्द-ए-नज़र ग़ौस-ए-पाक हैं
दरिया-ए-बे-किनार विलायत में आसमान
मिस्ल-ए-सदफ़ है उस में गुहर ग़ौस-ए-पाक हैं
शर'-ए-मोहम्मदी की है रौनक़-ए-हुज़ूर से
सरसब्ज़ नख़्ल-ए-दीन के समर ग़ौस-ए-पाक हैं
है कौन जो मुती' नहीं है हुज़ूर का
फ़रमाँ-रवा-ए-जिन्न-ओ-बशर ग़ौस-ए-पाक हैं
परवाह नहीं जो कोई नहीं क़द्र-दाँ 'अमीर'
सद शुक्र कद्र-दान-ए-हुनर ग़ौस-ए-पाक हैं
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