बहारें तेरी मुर्ग़ान-ए-चमन तेरे चमन तेरा
बहारें तेरी मुर्ग़ान-ए-चमन तेरे चमन तेरा
गुलों में बू है तेरी रंग तेरा बाँकपन तेरा
फ़लक तेरा ज़मीं तेरी मलक तेरे हैं हम तेरे
ग़रज़ जो कुछ है दुनिया में है सब नौ-ओ-कुहन तेरा
नहीं है तोड़ उस का जब तो हम बच कर निकलते हैं
बड़ी उलझन का है हर पेच ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन तेरा
सुख़न गोए क़ियामत यूँ किया है तुझ को ख़ालिक़ ने
करेगा सब को ज़िंदा ये लब-ए-ए'जाज़-ए-फ़न तेरा
कहा किस शय को तू ने अपनी कोई भी नहीं तेरी
उसी की ये अमानत है न तन तेरा न मन मेरा
लहद में सूँघ कर इस को फ़रिश्ते मुझ से कहते हैं
रिदा-ए-सरवर-ए-आ'लम है क्या 'अकबर' कफ़न तेरा
- पुस्तक : जज़्बात ए अकबर (पृष्ठ 1)
- रचनाकार :शाह अकबर दानापूरी
- प्रकाशन : आगरा अख़बार प्रेस, आगरा (1915)
- संस्करण : First
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