हाथ में दामान-ए-शाह-ए-दो-जहाँ रखता हूँ मैं
अपने क़ब्ज़ा में ज़मीन-ओ-आसमाँ रखता हूँ मैं
मैं ज़बाँ को सिर्फ़ आह-ओ-शोर-ओ-शेवन क्यूँ करूँ
सिर्फ़ उन की ना'त पढ़ने को ज़बाँ रखता हूँ मैं
मेरी कश्ती छोड़ दे बतहा की जानिब ना-ख़ुदा
अपने दिल में ख़ौफ़ तूफ़ाँ का कहाँ रखता हूँ मैं
सरवर-ए-कौन-ओ-मकाँ पर क्यूँ न सदक़े जाऊँ मैं
उन के सदक़े में लब-ए-गौहर-फ़शाँ रखता हूँ मैं
मुझ को तो मतलूब गलियाँ हैं दयार-ए-पाक की
दूर दिल से हसरत-ए-कौन-ओ-मकाँ रखता हूँ मैं
ये वो दौलत है कि जिस पर गंज-ए-क़ारूँ भी निसार
दिल में अपने 'इश्क़-ए-अहमद को निहाँ रखता हूँ मैं
वर्ना ऐ 'बहज़ाद' मैं क्या क्या ये मेरी शा'इरी
फ़ैज़ है उन का जो ये नाम-ओ-निशाँ रखता हूँ मैं
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