मुझे ये सब जनाब-ए-ग़ौस के दीवाने लगते हैं
रोचक तथ्य
منقبت درشان غوث پاک شیخ عبدالقادر جیلانی (بغداد-عراق)
मुझे ये सब जनाब-ए-ग़ौस के दीवाने लगते हैं
ये चेहरे जितने हैं सब जाने और पहचाने लगते हैं
तुम्हारी निस्बतों का 'अक्स जिन में भी नहीं होता
वो आईने हमेशा के लिए धुँदलाने लगते हैं
वो हैं महबूब-ए-सुबहानी वो आल-ए-पाक-ए-हैदर हैं
वो जिन की ठोकरों से ठंडे तन गरमाने लगते हैं
नज़र पड़ने तो दो इक बार मेरे ग़ौस-ए-आ’ज़म की
वो गुलशन में बदल जाएँगे जो वीराने लगते हैं
उन्हें कुछ फ़ाएदा होगा उन्हें कुछ मिलता भी होगा
जिसे देखो वही तो आप के गुन गाने लगते हैं
जो जाते हो तो जाओ दर पे पर इतना समझ लो तुम
जो दिल आते हैं दर पर ग़ौस के नज़्राने लगते हैं
ज़रा सी भी 'ज़िया' पाई है जिस ने ग़ौस-ए-आ’ज़म की
अँधेरे ख़ुद-ब-ख़ुद उस शख़्स से कतराने लगते हैं
- पुस्तक : Sukhanwaran-e-Izzat (पृष्ठ 356)
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