मुनव्वर हैं वो आँखें जिन में नुदरत शाह-ए-बतहा की
मुनव्वर हैं वो आँखें जिन में नुदरत शाह-ए-बतहा की
हबीबुल्लाह साग़र वारसी
MORE BYहबीबुल्लाह साग़र वारसी
मुनव्वर हैं वो आँखें जिन में नुदरत शाह-ए-बतहा की
मदीना है वो सीना जिस में उल्फ़त शाह-ए-बतहा की
ख़ुदा ने नूर क़िंदील-ए-अज़ल में आप का रखा
बनी जब ज़ात मक़्सूद-ए-नबुव्वत शाह-ए-बतहा की
नज़र ने आप को मीसाक़ में सरकार देखा था
तसव्वुर में अभी तक है शबाहत शाह-ए-बतहा की
ख़ुदाए लम-यज़ल को रूह भरनी थी नबुव्वत में
हुई है आख़िरत में ये जो बे’सत शाह-ए-बतहा की
यही वो इस्म-ए-आ'ज़म है फ़रिश्ते जिस को पढ़ते हैं
रहे तस्बीह होंटों पर ब-कसरत शाह-ए-बतहा की
मिरे आक़ा न आएँगे तो महशर भी न उट्ठेगा
अज़ल से है क़ियामत को ज़रूरत शाह-ए-बतहा की
चिराग़-ए-ज़ेर-ए-दामान-ए-करम को कौन फूँकेगा
है मेरे 'साग़र'-ए-दिल में हरारत शाह-ए-बतहा की
- पुस्तक : Surood-e-Asfia (पृष्ठ 69)
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