है दिल में 'इश्क़-ए-नबी का जल्वा नज़र में दाता समा रहे हैं
है दिल में 'इश्क़-ए-नबी का जल्वा नज़र में दाता समा रहे हैं
वासिफ़ अली वासिफ़
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रोचक तथ्य
نصرت فتح علی خاں نے واصف علی واصف کا یہ کلام پہلی بار داتا دربار میں عرس کے دوران میں پڑھا تھا۔
है दिल में 'इश्क़-ए-नबी का जल्वा नज़र में दाता समा रहे हैं
बड़े अदब का मक़ाम है ये हुज़ूर तशरीफ़ ला रहे हैं
किसी का होगा कोई सहारा है एक दाता फ़क़त हमारा
यही ग़ुलामों की बंदगी है हम अपना दाता मना रहे हैं
नगर-नगर में करो मुनादी है आज दाता पिया की शादी
हमारे दाता बने हैं दूल्हा ग़ुलाम महफ़िल सजा रहे हैं
'अजीब दाता के सिलसिले हैं फ़रीद घुठने के बल चले हैं
वही मदीने का रास्ता है जो राह दाता दिखा रहे हैं
हमारे दाता के सब सवाली कोई गया आज तक न ख़ाली
हमारे दाता की शान देखो वो सब की बिगड़ी बना रहे हैं
हर एक नज़र में भरी है मस्ती बदल दी दाता ने सब की हस्ती
ये मस्त दाता के पी रहे हैं नज़र से दाता पिला रहे हैं
यहाँ शहंशाह अदब से आएँ यहाँ तो ख़्वाजा भी सर झुकाए
वही हुए सरफ़राज़ 'वासिफ़' यहाँ जो बन कर गदा रहे हैं
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