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करम का वक़्त है हद से ज़्यादा है परेशानी

कामिल शत्तारी

करम का वक़्त है हद से ज़्यादा है परेशानी

कामिल शत्तारी

रोचक तथ्य

منقبت در شان غوث پاک شیخ عبدالقادر جیلانی (بغداد-عراق)

करम का वक़्त है हद से ज़्यादा है परेशानी

तो आख़र मुहिउद्दीन अल-मदद या ग़ौस समदानी

किसी की दस्त-गीरी के सहारे जी रहा हूँ मैं

मिरे दुश्मन को होगी लग़्ज़िश-ए-पा की परेशानी

ख़ुदा शाहद है ये हम से तो अब देखी नहीं जाती

तिरे होते हुए तेरे ग़ुलामों की ये हैरानी

तिरी निस्बत से हर ख़ादिम तिरा मख़्दूम-ए-'आलम है

जो दीवाना है तेरा उस की सब दुनिया है दीवानी

मोहब्बत ने मिरे दामन को बाँधा किस के दामन से

मैं इक बंदा कमीना और वो महबूब-ए-सुबहानी

गुमान-ए-रहमतुल-लिल-’आलमीं उन पर क्यूँ गुज़रे

वही नक़्शा वही सज-धज वही तस्वीर-ए-क़ुरआनी

कहाँ पहुँचा दिआ मुझ को तिरे दाग़-ए-ग़ुलामी ने

मेरे क़दमों में दाराई मिरी ठोकर में सुल्तानी

यही वो शिर्क है तौहीद की है झलकियाँ जिस में

वही महबूब है मेरा जो है महबूब-ए-सुबहानी

ख़याल-ए-ग़ैर की आमद के सारे रास्ते रोके

तिरी निस्बत ने वो पहरे बिठाए शाह-ए-जीलानी

मक़ाम-ए-क़ुर्ब तक उन के रसाई किस की मुमकिन है

बहुत मुश्किल है 'इरफ़ान-ए-जनाब-ए-ग़ौस-ए-समदानी

क़सम अल्लाह की उन की 'अता 'कामिल' करम 'कामिल'

मगर 'कामिल' मुसीबत है ख़ुद अपनी तंग-दामानी

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अज्ञात

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स्रोत :
  • पुस्तक : वारदात-ए-कामिल (पृष्ठ 108)

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