तस्लीम क्यूँ न होवे मुझ को अदा-ए-साबिर
रोचक तथ्य
منقبت در شان صابر پاک شیخ علاؤالدین علی احمد (کلیر-اتراکھنڈ)
तस्लीम क्यूँ न होवे मुझ को अदा-ए-साबिर
जो है रज़ा ख़ुदा की वो है रज़ा-ए-साबिर
अपने करम से गर वो दिल का करे मुदावा
जितने मरज़ हैं मेरे सब को मिटाए साबिर
हिंदल-वली न क्यूँ कर तुझ को कहे ज़माना
लाखों ने तेरे दर से हैं फ़ैज़ पाए साबिर
ये आरज़ू है मेरी या रब तेरे करम से
बिगड़े जो बात मेरी उस को बनाए साबिर
वहदत के आईना का जल्वा दिखा के मुझ को
दिल से कुदूरतों को मेरे मिटाए साबिर
तुझ को ही मेरे मौला ढूँडें हैं मेरी आँखें
बिरहा की आग तेरी तन-मन जलाए साबिर
फ़ुर्क़त में तेरे वहशी फिरते हैं मारे-मारे
कर-कर के याद तुझ को कहते हैं हाय साबिर
राह-ए-ख़ुदा में चलना है काम साबिरों का
बे-सब्र हूँ मुझे भी दर पर बुलाए साबिर
उठ कर 'नशात' गुहर से आँखों के बल मैं जाऊँ
रौज़ा में अपने जिस दम मुझ को बुलाए साबिर
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