शम्सुल-यसरिब क़मरुल-बत्हा तुझे रहमत-ए-हर-दोसरा जाना
रोचक तथ्य
قصیدہ۔
शम्सुल-यसरिब क़मरुल-बत्हा तुझे रहमत-ए-हर-दोसरा जाना
फ़ी-यौमिल-हश्र वसीलतना मुझे भूल न रोज़-ए-जज़ा जाना
कुछ तुम ने रसूल-ए-ख़ुदा जाना मरता है कोई शैदा जाना
है रहम की जा ज़रा आ जाना वो जमाल-ओ-रुख़ अपना दिखा जाना
'इस्याँ दारम ख़िर्मन-ख़िर्मन उठती नहीं शर्म से मेरी गर्दन
दर हश्र बराए शफ़ा'अत मिन-लबिन रूह-फ़ज़ा को हिला जाना
कहीं जी लागे न तो मन लागे मोरे नैन नीर बहन लागे
गले मिल सब ये कहन लागे मोरे नैन नीर बहा जाना
यही सोचत हूँ रत्या सगरी भरूँ कैसे मैं ज़मज़म की गगरी
बतहा बस्ती यसरिब नगरी या रब मिरा भी होगा जाना
मैं मरीज़-ए-फ़िराक़ सिसकता हूँ तिरे रोज़ा-ए-पाक को तकता हूँ
यही जोश-ए-जुनूँ में बकता हूँ इधर आ जाना इधर आ जाना
पूछें जो नकीरैन आके मुझे मन-रब्बुका और मा-दीनुका से
उस वक़्त शफ़ी'-ए-अबद मेरे आकर के जवाब बता जाना
वो तो ज़ीस्त का था पियाला छलका दिल ही में रहा वो जो था दिल का
रहबर कोई क़ब्र की मंज़िल का देखा न तो तेरे सिवा जाना
कब तक मैं फिरूँ हमा-तन बे-कल सहरा-सहरा जंगल-जंगल
फ़ुर्क़त में गई तिरी शक्ल बदल अब से न मिरे मौला जाना
फ़ुर्क़त में शह-ए-बहर-ओ-बर के रोया भी कभी गर जी भर के
ऐ अश्क मिरे चश्म-ए-तर के मिरे हर्फ़-ए-ख़ता को मिटा जाना
रफ़्तन चु ब-रू-ए-सिरात बुवद कीजे मिरी वाँ पर आके मदद
वज़न-ए-ख़ैर-ओ-शर मन चू शवद मुरा पल्ला-ए-ख़ैर झुका जाना
- पुस्तक : Guldasta-e-Qawwali (पृष्ठ 5)
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