सील संतोष सदा समदृष्टि रहनि गहनि में पूरा
सील संतोष सदा समदृष्टि रहनि गहनि में पूरा
ताके दरस-परस भय भाजै होइ कलेस सब दूरा
निसि-बासर चरचा चित-चंद्न आन कथा न सोहाबै
करनी धरनी संगीत गावै प्रेम रंग उड़ावै
राग-सरूप अखंडित अविचल निर्भर बेपरवाई
कहै 'कबीर' ताहि पग परसो घट घट सब सुखदाई
जिसके स्वभाव में शील और संतोष है, जो सबको एक दृष्टि से देखता है, और रहन-गहन में पूरा है, उसके प्रम दर्शन से सारे भय भाग जाते हैं और सब क्लेश दूर हो जाते हैं. हर समय उसकी चर्चा (कल्पना) इस तरह रहती जैसे मन में चंदन की सुगंध बसी हो, उसे कोई दूसरी कथा अच्छी नहीं लगती. उठते-बैठते वह उसका गीत गाता है और चारों तरफ़ प्रेम का रंग उड़ाता रहता रहता है. वह राग की तरह अखंडित और अविचल है, निडर है और बेपरवाह है. ‘कबीर’ कहते हैं कि उसी के चरण छुओ जो हर प्राणी को सुख और प्रेम से भर देता है.
(अनुवाद: सरदार जाफ़री)
- पुस्तक : कबीर समग्र (पृष्ठ 777)
- रचनाकार :कबीर
- प्रकाशन : हिन्दी प्रचारक पब्लिकेशन प्रा.लि., वाराणसी (2001)
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