ऐ हुस्न-ए-तू दर आन:-ए-कौन अयाँ अस्त
वै दीदः-ए-उश्शाक़ ब-रुयत निगराँ अस्त
ऐ वो, जिसका सौंदर्य दुनिया के आइने में झलकता है, और जिसके रूप पर आशिक़ों की नज़रें सदा ठहरी रहती हैं।
दर मय-कदः-ए-इश्क़ शुदम मस्त कि आँ यार
ख़ुद बाद:-ओ-ख़ुद-साक़ी-ओ-ख़ुद-पीर-ए-मुग़ाँ अस्त
मैं इश्क़ की मयसराय में ऐसा मदहोश हुआ कि, वह यार स्वयं ही शराब बन गया, स्वयं ही साक़ी और स्वयं ही पीर-ए-मुग़ाँ।
आँ हुस्न कि दीवान:-ए-ऊ गश्त दो-आलम
दर पर्द:-ए-आँ-ज़ुल्फ़-ए-दोता अज़ चे निहाँ अस्त
वह हुस्न जिस पर दोनों जहाँ दीवाने हो उठे, उसे अपनी दो-बाला ज़ुल्फ़ों के परदे में छिपने की भला क्या आवश्यकता?
अज़ महशर-ए-हुस्नत हम: जा शोर-ओ-फ़ुग़ाँ अस्त
गर मस्जिद-ओ-बुत-ख़ाना व गर दैर-ए-मुग़ाँ अस्त
तेरे हुस्न के महशर से हर ओर हलचल और नौहा है, चाहे वह मस्जिद हो, बुतख़ाना हो या फिर दैर-ए-मुग़ाँ।
चूँ 'औहदी' आँ हुस्न-ए-दिल-आरा-ए-तू दीद:
दीवान:-वशाँ गिर्यः-कुन-ओ-ख़न्द:-ज़नाँ अस्त
जब औहदी ने तेरी दिलफ़रेब सुन्दरता देखी, तो वह दीवानों की तरह कभी हँसा और कभी रो पड़ा।
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