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ब-मश्हद गर सरम सूदे चे बूदे

हाजी वारिस अली शाह

ब-मश्हद गर सरम सूदे चे बूदे

हाजी वारिस अली शाह

ब-मश्हद गर सरम सूदे चे बूदे

दरश मस्जूद-ए-मन बूदे चे बूदे

मशहद में अगर मेरा सर घिसता तो क्या ही अच्छा होता

अगर उस दर का दरवाज़ा मेरा मस्जूद होता तो क्या ही अच्छा होता

हबाब-आसा तनम दर सैल-ए-अशकम

रह-ए-आँ रौज़ः पैमूदे चे बूदे

हबाब की तरह मेरा जिस्म मेरे आँसुओं के सैलाब में

मशहद के रौज़ा का रास्ता तै करता तो क्या ही अच्छा होता

ग़ुबारम रा अगर बाद-ए-सहर-गाह

ब-कू-ए-शाह बर बूदे चे बूदे

अगर सुब्ह के वक़्त की हवा मेरे ग़ुबार को

शाह की गली में ले जाती तो क्या ही अच्छा होता

मरा काश सुल्तान-ए-दो-’आलम

सग-ए-दरगाह फरमूदे चे बूदे

काश दोनों जहानों का बादशाह मुझको

अपनी बारगाह का कुत्ता कह देते तो क्या ही अच्छा होता

तह-ए-ना'ल-ए-समंदर शोख़-ए-आँ शाह

सरापायम चू फ़र्सूदे चे बूदे

उस शाह के शोख़ घोड़े की नाल का तल्वा अगर मेरे जिस्म को

घिसा देता तो क्या ही अच्छा होता

अगर तीर-ए-मिज़ः रा आँ कमाँ-दार

ब-कीस-ए-चश्म अंदूदे चे बूदे

अगर वो तीर-अंदाज़ अपनी पलक के तीर को मेरी आँख के थैले में

रखता तो क्या ही अच्छा होता

ख़ुदावंदा ब-मीना-ए-दिल-ए-मन

मय-ए-इ'श्क़श गर आमूदे चे बूदे

या अल्लाह मेरे दिल की सुराही में उस के ’इश्क़ की शराब

अगर जाती तो क्या ही अच्छा होता

अगर मानिंद-ए-शान: पंज:-ए-मन

गिरह ज़ाँ ज़ुल्फ़ ब-कशूदे चे बूदे

अगर मेरा पंजा कंघी की तरह उस की ज़ुल्फ़ की गिरह को

खौलता तो क्या ही अच्छा होता

शब-ओ-रोज़स्त चूँ दुलाब दर चर्ख़

दमे 'वारिस' गर आसूदे चे बूदे

रात-दिन जैसे कुँवें की चरखड़ी घूमती रहती है

इसी तरह ’वारिस’ का दम अगर आसूदा हो जाता तो क्या ही अच्छा होता

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