ब-मश्हद गर सरम सूदे चे बूदे
ब-मश्हद गर सरम सूदे चे बूदे
दरश मस्जूद-ए-मन बूदे चे बूदे
मशहद में अगर मेरा सर घिसता तो क्या ही अच्छा होता
अगर उस दर का दरवाज़ा मेरा मस्जूद होता तो क्या ही अच्छा होता
हबाब-आसा तनम दर सैल-ए-अशकम
रह-ए-आँ रौज़ः पैमूदे चे बूदे
हबाब की तरह मेरा जिस्म मेरे आँसुओं के सैलाब में
मशहद के रौज़ा का रास्ता तै करता तो क्या ही अच्छा होता
ग़ुबारम रा अगर बाद-ए-सहर-गाह
ब-कू-ए-शाह बर बूदे चे बूदे
अगर सुब्ह के वक़्त की हवा मेरे ग़ुबार को
शाह की गली में ले जाती तो क्या ही अच्छा होता
मरा ऐ काश सुल्तान-ए-दो-’आलम
सग-ए-दरगाह फरमूदे चे बूदे
काश दोनों जहानों का बादशाह मुझको
अपनी बारगाह का कुत्ता कह देते तो क्या ही अच्छा होता
तह-ए-ना'ल-ए-समंदर शोख़-ए-आँ शाह
सरापायम चू फ़र्सूदे चे बूदे
उस शाह के शोख़ घोड़े की नाल का तल्वा अगर मेरे जिस्म को
घिसा देता तो क्या ही अच्छा होता
अगर तीर-ए-मिज़ः रा आँ कमाँ-दार
ब-कीस-ए-चश्म अंदूदे चे बूदे
अगर वो तीर-अंदाज़ अपनी पलक के तीर को मेरी आँख के थैले में
रखता तो क्या ही अच्छा होता
ख़ुदावंदा ब-मीना-ए-दिल-ए-मन
मय-ए-इ'श्क़श गर आमूदे चे बूदे
या अल्लाह मेरे दिल की सुराही में उस के ’इश्क़ की शराब
अगर आ जाती तो क्या ही अच्छा होता
अगर मानिंद-ए-शान: पंज:-ए-मन
गिरह ज़ाँ ज़ुल्फ़ ब-कशूदे चे बूदे
अगर मेरा पंजा कंघी की तरह उस की ज़ुल्फ़ की गिरह को
खौलता तो क्या ही अच्छा होता
शब-ओ-रोज़स्त चूँ दुलाब दर चर्ख़
दमे 'वारिस' गर आसूदे चे बूदे
रात-दिन जैसे कुँवें की चरखड़ी घूमती रहती है
इसी तरह ’वारिस’ का दम अगर आसूदा हो जाता तो क्या ही अच्छा होता
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