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Sufinama

चूँ ज़े-जाम-ए-वस्ल मस्तम रोज़-ओ-शब

औहदी

चूँ ज़े-जाम-ए-वस्ल मस्तम रोज़-ओ-शब

औहदी

चूँ ज़े-जाम-ए-वस्ल मस्तम रोज़-ओ-शब

आ'रिफ़म ज़न्दोह-ओ-आज़ाद अज़ तरब

चूँकि मैं वस्ल के जाम से रात-दिन मस्त हूँ

मैं दुखों से आश्ना और इ’श्क़ की ज़िंदगी से बे-फ़िक्र हो गया हूँ

गरचे ख़ुबानंद दर आ'लम वले

बस अ'जब बीनम तुरा अज़ हर अ'जब

दुनिया में हसीनों की कमी नहीं है

लेकिन मैं तुझे अ’जीब और ज़ियादा अ’जीब देखता हूँ

गह ज़े-ख़ुद फ़ानी शवम बाक़ी ब-ज़ात

गह ज़े-फ़ुर्क़त जाँ ब-यायद ता ब-लब

कभी मैं ख़ुद को मिटाने का मज़ा पाकर स्वयं-सिद्ध हो जाता हूँ

तो कभी विरह में मेरी जान होठों तक जाती है

तालिब-ए-हूरान-ए-जन्नत नीस्तम

शादी-ए-वस्ल-ए-तुरा दारम तलब

मुझे जन्नत की हूरों की तलब नहीं है

मैं तो सिर्फ़ तेरे मिलन का तलबगार हूँ

वालिह-ए-हुस्न-ए-रुख़-ए-तू दर जहाँ

नीस्त ख़ाली हर ज़माँ अज़ ताब-ओ-तब

तेरे चेहरे के हुस्न के शैदाई दुनिया में बहुत हैं

तेरी चमक-दमक से ये दुनि या कभी ख़ाली नहीं रहती

हर ज़माँ अज़ आतिश-ए-सौदा-ए-तू

अज़ दरून-ए-सीनः मी-आयद लहब

हर वक़्त तेरी दीवानगी की आग

हमारे सीने में धधकती रहती है

चूँ ज़े जाम-ए-शौक़ मस्तम 'औहदी'

मस्त-ओ-मय-ख़्वार आमदः मारा लक़ब

‘औहदी’ चूँकि मैं चाहत के जाम से मस्त हूँ

लोग मुझे मस्त और शराबी कह कर पुकारते हैं

स्रोत :
  • पुस्तक : नग़्मात-ए-सिमा (पृष्ठ 47)
  • प्रकाशन : नूरुलहसन मौदूदी साबरी (1935)

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