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ऐ सबा अज़ निकहते अज़ ख़ाक-ए-दर-ए-यार बयार

हाफ़िज़

ऐ सबा अज़ निकहते अज़ ख़ाक-ए-दर-ए-यार बयार

हाफ़िज़

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    सबा अज़ निकहते अज़ ख़ाक-ए-दर-ए-यार बयार

    ब-बर अंदोह-ए-दिल-ओ-मुज़्दः-ए-दिलदार बयार

    सबा ख़ाक-ए-दरिया की कुछ ख़ुशबू ला (उस ख़ुशबू के ज़रि’आ) दिल का ग़म दूर कर और महबूब की ख़ुश-ख़बरी ला-या’नी उस ख़ाक की ख़ुशबू भी राहत का सबब है। सबा जब ये ला सकती है तो महबूब की ख़बर भी उस के ज़रि’आ मिल सकती है।

    नुक्तः-ए-रूह फ़ज़ा अज़ दहन-ए-यार ब-गोए

    नामः-ए-ख़ुश-ख़बर अज़ आ'लम-ए-असरार बयार

    महबूब की गुफ़्तगु का कोई रूह-अफ़्ज़ा नुक्ता (नुक्ता-ए-मा’रफ़त) मुझ तक पहुँचा (महबूब तो असरार की एक दुनिया आबाद किए हुए है) इस आ’लम-ए-असरार से ख़ुश-ख़बरी का ख़त ला (क्यूँ कि मा’शूक़-ए-हक़ीक़ी (अल्लाह ता’ला या उस के रसूल या मुर्शिद-ए-बरहक़) की ज़बान से निकला हुआ एक नुक्ता भी मेरे इंक़िबाज़-ए-क़लबी को दूर रकरने के लिए काफ़ी है)

    दिल-ए-दीवानः ज़े ज़ंजीर नमी-आयद बाज़

    हल्क़ः-ए-अज़ ख़म-ए-आँ तुर्रः-ए-तर्रार बयार

    दिल-ए-दीवाना ज़ंजीर से बाज़ आने वाला नहीं। उस मा’शूक़ के ज़ुल्फ़ तर्रार का कोई हल्क़ा ला (या’नी दीवाना इ’श्क़ को ज़ंजीर भी सँभाल नहीं सकती, वो अगर सँभल सकता है और उस की शोरिश-ओ-तड़प कम हो सकती है तो ज़ुल्फ़ मा’शूक़ से बंध जाने के बा’द ही कम हो सकती है। ज़ंजीर के मुक़ाबले में हल्क़ा-ए-ज़ुल्फ़ की बंदिश एक लतीफ़ किनाया है और आ’शिक़ मा’नवी के तौर पर असीर-ए-ज़ुल्फ़ हो कर ही सुकून से रह सकता है)

    दल्क़-ए-‘हाफ़िज़’ ब-चे अर्ज़द ब-मयश रंगीं कुन

    वाँ गहश मस्त-ओ-ख़राब अज़ सर-ए-बाज़ार बयार

    ‘हाफ़िज़’ की गुदड़ी किस लायक़ है (या’नी उस की हैसियत क्या है) उस को शराब से रंगीन और तर करो, फिर मस्त-ओ-ख़राब कर के बाज़ार से ले आओ (या’नी पैमाने में तो शराब कम समाती है तुम ऐसा करो कि हाफ़िज़ के लिबास-ए-तक़्वा को शराब में तर कर डालो इस तरह ज़्यादा मिक़दार में शराब समा जाए और फिर हाफ़िज़ उस को पी कर मस्त-ओ-ख़राब हो कर जब बाज़ार में पड़ा हो तो उस को वहाँ से ले आओ)

    स्रोत :
    • पुस्तक : नग़मातुल उंस फ़ी मजालिसिल क़ुदस (पृष्ठ 216)
    • रचनाकार :शाह हिलाल अहमद क़ादरी
    • प्रकाशन : दारुल एशा'अत ख़ानक़ाह मुजीबिया (2016)
    • संस्करण : First

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