आँ रूह रा कि इश्क़-ए-हक़ीक़ी शिआ'र नीस्त
आँ रूह रा कि इश्क़-ए-हक़ीक़ी शिआ'र नीस्त
नाबूद: बेह कि बूदन-ए-ऊ ग़ैर-ए-आ'र नीस्त
जो आत्मा सच्चा प्रेम ग्रहण न करे उसका नष्ट हो जाना ही अच्छा है।
क्योंकि उसका जीवन लज्जा-जनक है।
दर इश्क़ मस्त बाश कि इश्क़स्त हर चे हस्त
बे-कार-ओ-बार-ए-इश्क बर यार बार नीस्त
प्रेम में तन्मय हो जा। प्रेम सर्वस्व है।
बिना इसमें लवलीन हुए प्यार का सामीप्य प्राप्त न होगा।
गोयन्द इश्क़ चीस्त ब-गो तर्क-ए-इख़्तियार
हर कू ज़े-इख़्तियार नरस्त इख़्तियार नीस्त
लोग पूछते हैं प्रेम क्या वस्तु है? कह दे अपने अधिकार को त्याग देना
जिसने अपने अधिकार को त्यागा नहीं वह प्रेम के लिये बनाया ही नहीं गया।
आशक शहन्शही-अस्त दो-आलम बर ऊ निसार
हेच इल्तिफ़ात-ए-शाह ब-सू-ए-निसार नीस्त
प्रेमी एक सम्राट है जिस पर दोनों संसार निछावर है।
राजा को इस निछावर की कोई परवाह नहीं होती।
इश्क़स्त-ओ-आशिक़स्त कि बाक़ीस्त ता-अबद
दिल जुज़ बरीं मेनह कि ब-जुज़ मुस्तआ'र नीस्त
प्रेमी और प्रेम अमर हैं। प्रेम के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु से प्रेम न कर
क्योंकि अन्य वस्तुओं का अस्तित्व अस्थायी है।
ता कै कनार-गीरी मा'शूक़-ए-मुर्द: रा
जाँ रा कनार-गीर कि ऊ रा कनार नीस्त
मरी हुई प्रियतमा को कब तक गोद में लिये रहेगा?
वह तत्व नहीं रखती। गोद में लेना है तो प्राण को ले।
आँ कज़ बहार ज़ाद ब-मीरद गहे ख़िज़ाँ
गुल्ज़ार-ए-इश्क़ रा मदद अज़ नौ-बहार नीस्त
जो वस्तु बहार से उत्पन्न होती है वह पतझड़ के समय मिट जाती है,
परन्तु प्रेम की फुलवारी बहार से सम्बन्ध नहीं रखती।
आँ गुल कि अज़ बहार बुवद ख़ार यार-ए-ऊस्त
वाँ मय कि अज़ असीर बुवद बे-ख़ुमार नीस्त
वह स्वयं सदा बहार है। जो पुष्प बहार से उत्पन्न होता है पतझड़ में वह कण्टक बन जाता है
और अंगूर के निचोड़े हुए पानी से जो शराब बनती है उसमें भी नशे के उतार के समय कष्ट अवश्य होता है।
नज़्ज़ारः गर म-बाश दरीं राह मुंतज़िर
वल्लाह कि हेच मर्ग बतर ज़े-इंतजार नीस्त
यदि तू खोटे सिक्के के सदृश नहीं है तो स्वच्छ हृदय प्राप्त कर।
यदि तेरे कान में मोती नहीं है तो उस सिक्के को कान में धारण कर ले।
बर नक़्द-ए-क़ल्ब नक़्द तू अगर क़ल्ब नीस्ती
ईं नुक्तः गोश-दार अगरत गोश-वार नीस्त
प्रेमी इस मार्ग में इंतिज़ार नहीं करता,
जैसे कि मृत्यु किसी के लिये नहीं ठहरती।
बर अस्प-ए-तन मलर्ज़ सुबुक-तर प्यादः शो
पर्रश देहद ख़ुदाए कि बर तन सवार नीस्त
शरीर रूपी घोड़े पर काँपते हुए सवार के समान न बैठ। शीघ्र ही पैदल चलना प्रारम्भ कर।
जो शरीर पर सवार नहीं होता उसे शीघ्र ही पंख मिल जाते है।
अन्देश:हा रहा कुन व दिल शाद शो तमाम
चूँ रू-ए-आईन: कि ब-नक़्श-ओ-निगार नीस्त
सब चिन्ताओं का त्याग करके हृदय को प्रसन्न बना ले।
उसे उस दर्पण के रूप में ले आ, जिसमें कोई बेल बूटा नहीं होता।
चूँ साद: शुद ज़े नक़्श हम: नक़्श-हा दरूस्त
ज़ाँ सादः-रू ज़े-रू-ए-कसे शर्मसार नीस्त
जब तू ने दर्पण सा अपने चेहरे को नक़्शों से ख़ाली कर दिया तब सब नक़्श मिट गये।
ऐसा चेहरा फिर किसी के चेहरे से शर्मिन्दा नहीं होता।
आईन: साद: ख़्वाही ख़ुद रा दरू निगर
कू रा ज़े-रास्त गोई शर्म-ओ-हज़ार नीस्त
यदि दर्पण को स्वच्छ तथा सादा रखना चाहता है तो अपना बदन उसमें देख।
यह समझ ले कि उसे सत्य प्रकट करने में न लज्जा ही है और न भय।
चूँ रू-ए-आहनी ज़े-तमीज़ ईं सफ़ा ब-याफ़्त
ता रू-ए-दिल चे याबद कू रा ग़ुबार नीस्त
जब लोहे की परत का ऊपरी भाग बुद्धि द्वारा इतना स्वच्छ हो गया है तो ध्यान दे!
कि हृदय जिसमें कोई गन्दापन नहीं होता कितना निर्मल हो जाएगा।
लेकिन मियान-ए-आहन-ओ-दिल ईं तफ़ावुत अस्त
कि राज़-दार आमद व आँ राज़दार नीस्त
परन्तु लोहे और हृदय में अन्तर है।
हृदय रहस्यमय है और लोहे में कोई रहस्य नहीं है।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.