इश्क़
ख़ुशा वक़्ते शोरीदगान-ए-ग़मश
अगर ज़ख़्म बीनंद व गर मरहमश
गदायान-ए- अज़ पादशाहे नुफ़ूर
ब-उम्मीदश अंदर गदाई सुबूर
दमा-दम शराब-ए-अलम दर कशंद
वगर तल्ख़ बीनंद दम दर कशंद
बला-ए-ख़ुमारस्त दर ऐश-ए-मुल
सिलह-दार ख़ारस्त बा शाख़-ए-गुल
न तल्ख़स्त सब्र कि बर याद-ए-ओस्त
कि तल्ख़ी शकर बाशद अज़ दस्त-ए-दोस्त
असीरश न-ख़्वाहद रिहाई ज़े-बंद
शिकारश न-ख़्वाहद ख़लास अज़ कमंद
सलातीन-ए-उज़्लत गदायान-ए-हय
मनाज़िल-शनासान-ए-गुम-कर्दा: पय
मलामत कशानंद मस्तान-ए-यार
सुबुक-तर बरद उश्तुर-ए-मस्त बार
ब-सर वक़्तशाँ ख़ल्क़ के रह बरंद
कि चूँ आब-ए-हैवाँ ब-ज़ुल्मत दरंद
चूँ बैतुल-मुक़द्दस बरूँ पुर ज़े-ताब
रहा कर्द: दीवार-ए-बेरूँ ख़राब
चु परवानः आतिश ब-ख़ुद दर ज़नंद
न चूँ किर्म पील: ब-ख़ुद दर तनंद
दिला-राम दर-बर दिला-राम जूए
लब अज़ तिश्नगी ख़ुश्क बर तर्फ़-ए-जूए
न-गोयम कि बर आब क़ादिर न-यंद
कि बर साहिल-ए-नील मुस्तसक़े-अंद
प्रेम
उसके प्रेमियों के लिये क्या ही सुनहरा अवसर है। वह घाव भी देखते हैं और औषधि भी।
ऐसे प्रेमी सम्राट् के पद को घृणा से ठुकरा देते हैं और उसकी आशा में रह कर निर्धनता पर सन्तोष करते हैं।
वह सर्वदा प्रेम की मदिरा पान किया करते हैं और जो उसे कड़वी समझते हैं संसार के प्रलोभनों में पड़, नहीं पीते हैं।
मदिरा-पान में आनन्द है परन्तु नशे के उतार में कष्ट हैं। प्रत्येक पुष्प की रखवाली के लिये टहनियों में कण्टक छिपे रहते हैं।
उसकी स्मृति में जो सन्तोष है वह कड़वा नहीं है। मित्र के हाथ की दी हुई कड़वी वस्तु भी मीठी हो जाती है।
उसका बन्दी, कारागार से मुक्त होने का इच्छुक नहीं है। जो उसके प्रेमपाश में अवरुद्ध हो गया वह छूटना नहीं चाहता।
उसके प्रणय के भिखारी भी संसार के सम्राटों से कम नहीं हैं। मंज़िलों को पहचानने वाले (संसारी) रास्ता भूले हुए हैं।
हम उसके प्रणयी हैं जो सहनशील है और मतवाले ऊँट के समान शीघ्र अपनी लादी ले जाते हैं।
संसार को उनकी ओर आकर्षित होने से क्या प्राप्त होगा जब कि अमृत के समान वह अन्धकार में छिपे हुए हैं।
बैतुल-मुक़द्दस के समान उनका हृदय प्रकाश से परिपूर्ण हो रहा है। उन्होंने इस ढाँचे को दुरावस्था में छोड़ रक्खा है। शरीर की तनिक भी चिन्ता नहीं है।
पतंगे के समान प्रणय की अग्नि में अपने आप को जला रहे हैं। जिस प्रकार रेशम का क्रीड़ा अपने ही ऊपर ताना-बाना तान देता है, उसी प्रकार उन्होंने भी अपने को भुला रक्खा है।
उनका प्यारा गोद में है, परन्तु उसी की खोज में व्यस्त हैं। सामने पानी से भरा हुआ तालाब है परन्तु ओंठ वहाँ तक पहुँचना नहीं चाहते।
यह नहीं कि वह जान बूझ कर ऐसा कर रहे हैं। परन्तु उन्हें प्यास का रोग है। नील नदी के तट पर बैठे हुए हैं परन्तु ओंठ अब भी सूख रहे हैं।
- पुस्तक : बोस्तान-ए-सा'दी (पृष्ठ 190)
- रचनाकार : शेख़ सादी
- प्रकाशन : नामी मुंशी नवल किशोर (1876)
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